SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 528
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ aaaaaaaaaaaaamannmarrin प्रथम पर्व ४८३ आदिनाथ चरित्र से हाथ खींचे रहूँगा। वे मुनि अकिंचन होकर रहते हैं , पर मैं तो अपने पास सुवर्ण-मुद्रादिक रखूगा। वे ऋषि जूते नहीं पहनते ; पर मैं तो पहनूंगा। वे अठारह हज़ार शीलके अंगोंसे युक्त सुशील होकर सुगन्धित बने रहते हैं, पर मैं शोलसे रहित होने के कारण दुर्गन्ध युक्त हूं, इसलिये चन्दनादिका लेप करूँगा। वे श्रमण मोहरहित हैं और मैं मोहसे ढका हुआ हूँ, इस कारण इस बातकी निशानीके तौर पर मस्तक पर छत्र लगाऊँगा; वे निष्कषाय होनेके कारण श्वेत वस्त्र धारण करते हैं और मैं कषायसे युक्त होनेके कारण उसके स्मारक स्वरूप कषाय वस्त्र धारण करूँगा। वे मुनि पापके भयसे बहुत. जीवोंसे भरे हुए संचित जलका त्याग करते हैं, पर मैं तो काफ़ी जलसे नहाऊँगा और खूब पानी पीऊँगा।" इस प्रकार वह अपनी ही बुद्धिसे अपने लिङ्ग (निशानी ) की कल्पना कर, वैसा ही वेश धारण कर, स्वामीके साथ विहार करने लगा। खञ्चरको जैसे घोड़ा या गधा नहीं कहा जाता ; पर वह है इन दोनोंके ही अंशसे उत्पन्न—इसी तरह मरिचिने न गृहस्थका सा बाना रखा, न मुनियोंका सा; बल्कि दोनोंसे मिलता-जुलता हुआ एक नया ही बाना पहन लिया। हंसोंके बीचमें कौएकी तरह महर्षियोंके बीच में इस अद्भुत मरिचिको देखकर बहुतेरे लोग बड़े कौतुकसे उससे धर्मकी बातें पूछते। उसके उत्तरमें वह मूल उत्तर गुणवाले साधु-धर्मका ही उपदेश करता था। उसकी बातें सुनकर याद कोई पूछ बैठता, कि तुम भी ऐसा ही क्यों नहीं करते? तो वह
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy