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________________ प्रथम पर्व आदिनाथ-चरित्र ४७६ बाहुबली मुनिका गुण गाते हुए, वे अपने अपवाद रूपी रोगकी औषधिके समान अपनेको इस प्रकार धिक्कार देने लगा,– “तुम धन्य हो कि मेरे ऊपर दया करके तुमने अपना राज्य भी छोड़ दिया । मैं पापी और अभिमानी हूँ ; क्योंकि मैंने असन्तोषके ही मारे तुम्हारे साथ इस प्रकार छेड़-छाड़ की। जो अपनी शक्ति नहीं जानते; जो अन्याय करनेवाले हैं, जो लोभके फन्दे में फंसे हुए हैं-ऐसे लोगोंमें मैं मुखिया है। इस राज्यको जो संसार-रूपी वृक्षका बीज नहीं जानते, वे अधम हैं। मैं तो उनसे भी बढ़कर हूँ ; क्योंकि यह जानता हुआ भी इस राज्यको नहीं छोड़ता। तुम्हीं पिताके सच्चे पुत्र हो—क्योंकि तुमने उन्हींका रास्ता पकड़ लिया। मैं भी यदि तुम्हारे हो जैसा हो जाऊँ, तो पिताका सञ्चा पुत्र कहलाऊँ ।” इस प्रकार पश्चा. त्तापरूपी जलसे विषादरूपी कीचड़को दूर कर भरत राजाने बाहुबलीके पुत्र चन्द्रयशाको उनकी गद्दीपर बैठाया। उसी समयसे जगत्में सैकड़ों शाखाओंवाला चन्द्रवंश प्रतिष्ठित हुआ । बह बड़े-बड़े पुरुष-रत्नोंकी उत्पत्तिका एक कारण-रूप हो गया। ___ इसके बाद महाराज भरत बाहुबलीको नमस्कार कर, स्वर्गकी राजलक्ष्मोकी सहोदरा बहनकी भाँति अपनी अयोध्या नगरी में अपने सकल समाजके साथ लौट आये। ____भगवान् बाहुबली जहाँ-के-तहाँ अकेले ही कायोत्सर्ग-ध्यान में ऐसे खड़े रहे, मानों पृथ्वीसे निकले हों या आसमानसे उतर आये हों। ध्यानमें एकाग्र चित्त किये हुए बाहुबलीकी दोनों आँखें
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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