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________________ आदिनाथ चरित्र ४५८ प्रथम पर्व कितना बल है, इसकी परीक्षा करनेके लिये तुम इस काममें यह सोचकर ढील न करना, कि इससे अपने स्वामीकी बेइज्जती होगी । मैंने ऐसा ही कुछ दुःस्वप्न देखा है, इसलिये तुमलोग उसका नाश कर दो। क्योंकि स्वप्नको स्वयं सार्थक कर दिखलानेवालेका स्वप्न निष्फल हो जाता है।" जब चक्रवर्त्तीने बारबार यही बात कही, तब सैनिकोंने बड़ी-बड़ी मुश्किलोंसे ऐसा करना स्वीकार कर लिया; क्योंकि स्वामीकी आज्ञा हर हालतमें बलवान् होती हैं। इसके बाद देवासुरोंने जिस प्रकार मन्द्राचल पर्वतके रज्जूभूत सर्पको खैंचा था, उसी प्रकार सब सैनिक मिलकर चक्रवर्तीकी भुजामें बांधी हुई वह श्रृंखला खींचनी शुरू की । अब तो वे चक्रीकी भुजासे लिपटी हुई शृंखला में चिपके हुए ऊँचे वृक्षकी डाल पर बैठे हुए बन्दरोंकी तरह मालूम पड़ने लगे । चक्रवतीने कौतुक देखनेके लिये थोड़ी देरतक पर्वतको भेदनेवाले हाथियोंकी तरह अपने को खींचनेवाले उन सैनिकोंको उपेक्षा की दृष्टिसे देखा । इसके बाद महाराजने उस हाथको अपनी छाती से लगाया । इतनेमें हाथ खींच लेनेसे पंक्ति बाँधकर खड़े हुए वे सब सैनिक घटीमालाकी तरह एक साथ गिर पड़े। उस समय खजूरका वृक्ष जैसे फलोंसे सोहता है, वैसेही उन लटकते हुए सैनिकोंसे चक्रवर्तीकी भुजा सोहने लगी । अपने स्वामीका यह अपूर्व बल-पौरुष देख, हर्षित हो, सैनिकोंने उनकी भुजासे लिपटी हुई उन श्रृंखलाओंको पूर्व में की हुई अनुचित शङ्काकी तरह तत्काल तोड़ डाला ।
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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