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________________ आदिनाथ - चरित्र प्रथम पर्व " युद्ध ठाननेका कारण भी आपकी भुजाओं की खुजलीही है ; परन्तु जैसे वनके उन्मत्त गजोंका उत्पात वनके नाशका ही कारण होता है, वैसे ही आपकी भुजाओं की यह कोड़ा जगतमें प्रलय मचा देगी। मांसभक्षी मनुष्य क्षणभरकी रसप्रीतिके लिये जिस प्रकार पक्षिओंके समूहका संहार कर डालते हैं, उसी प्रकार आप भी अपनी क्रीड़ा मात्रके लिये इस विश्वका संहार करने को क्यों तुले हुए हैं ? जैसे चन्द्रमाको किरणोंसे अग्निकी वृष्टि होनी उचित नहीं, वैसे ही जगत्के त्राता और कृपालु श्रीऋषभदेवके पुत्र होकर आपको ऐसा नहीं करना चाहिये । हे पृथ्वीनाथ ! संयमी पुरुष जैसे संगसे विराम ग्रहण कर लेते हैं, वैसे ही आप भी इस घोर संग्राम से हाथ खींचकर घर लौट जाइये । आप यहाँ तक चले आये, इसलिये आपके छोटे भाई भी आपका साम ना करनेको चले आये; पर यदि आप लौट जायेंगे तो वे भी लौट जायेंगे, क्योंकि कारणसे ही कार्यकी उत्पत्ति होती है। विश्वक्षय करनेके पापसे आप छुटकारा पा जाइये, रणका त्याग कर देनेसे दोनों ओरके सिपाहियोंका भला हो जाये, आपकी सेनाके भारसे होने वाली भूमिभङ्गका विराम होजानेसे पृथ्वीके गर्भमें रहने वाले भुवनपति इत्यादिको सुख होये, आपके सैन्यके मर्दनके अभाव से पृथ्वी, पर्वत, समुद्र, प्रजाजन और सारे जीवजन्तु क्षोभका त्याग कर दें और आपके संग्रामसे होनेवाले विश्व संहारकी शङ्कासे रहित होकर सारे देवता सुखी हो जायें ।" 1 देवता इस प्रकारकी पक्षवातपूर्ण बातें कही रहे थे, कि ૪૪૬
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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