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________________ पा जाना पकार समझता हू। .. प्रथम पर्व - ४१७ आदिनाथ-चरित्र से अपना नया जन्म समझते हैं, इसीलिये ये सब बातें भूल गये है। परन्तु वे खुशामदी टट्ट किसी काम नहीं आयेंगे और उन्हें अकेले ही बाहुबलीके बाहुबलसे होने वाली व्यथाको सहन करना पड़ेगा। रे दूत ! तू अभी यहाँसे चला जा। राज्य और जीवनकी इच्छा हो, तो वह भलेही यहाँ आयें, पर मैं तो पिताके दिये हुए राज्य से सन्तुष्ट हूँ, इसलिये उनकी पृथ्वीकी मैं उपेक्षा करता हूँ और वहाँ जाना बेकार समझता हूँ । बाहुबलीके ऐसा कहतेही रङ्ग बिरङ्ग शरीर वाले और स्वामीकी आज्ञा रूपी दूढ़ पाशमें बंधे हुए अन्यान्य राजा भी क्रोध से लाल नेत्र किये हुए सुवेगकी ओर देखने लगे। रोषके मारे "भारो-मारो" की आवाज़ लगाते हुए कुमार ओठ फड़काते हुए बारम्बार उसके ऊपर विकट कटाक्ष निक्षेप करने लगे कमर बाँधे तैयार, खड्ग हिलाते हुए अङ्गरक्षक मानों मारनेकी इच्छा से ही उसे भृकुटी पर चढाकर देखने लगे। मन्त्रीगण इस हालत को देख उसके जानकी चिन्ता करने लगे। उन्हें भय होने लगा, कि कहीं स्वामीका कोई साहसी सिपाही इस ग़रीबको न मार डाले। इतने में हाथ तैयार कर लेरको ऊँचे किये हुए होनेके कारण उसकी गरदन नापनेको तैयार मालूम पड़ने वाले छडीवरदारों ने उसे आसनसे उठा दिया। इससे उसके मनमें बड़ा दुःख हुआ तो भी धैर्यका अवलम्बन कर वह सभासे बाहर निकला । क्रोध से भरे हुए बाहुबलीके जोशीले शब्दोंके अनुमानसे ही राजद्वार पर रहने वाली पैदल-सेना क्रोधसे तमतमा उठी। कितनेही कोधसे
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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