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________________ ४०६ प्रथम पर्व आदिनाथ-चरित्र जिनके प्रतापको नहीं सहन कर सकता था, ऐसे नागकुमारोंके से राजकुमार उनके आस-पास बैठे हुए थे। बाहर निकली हुई जिहावाले सॉकी भांति खुले हुए हथियारोंको हाथमें लिये हुए हज़ारों आत्मरक्षकोंसे घिरे हुए थे। मलयाचलकी तरह भयङ्कर मालूम होते थे। जैसे चमरीमृग हिमालय पर्वतको चैवर डुलाते हैं, वैसेही सुन्दर-सुन्दर वाराङ्गनाएँ उन पर चैवर डुलाती थीं। बिजली सहित शरद् ऋतुके मेघकी तरह पवित्र वेश और छड़ी धारण करनेवाले छड़ीदारोंसे वे सुशोभित थे। सुवेगने भीतर प्रवेश कर, शब्दायमान, स्वर्ण-श्रृंखला-युक्त हाथीकी तरह ललाट को पृथ्वीमें टेक कर बाहुबलीको प्रणाम किया। तत्काल महाराजने कनखियोंसे इशारा किया और प्रतिहारी झटपट उसके लिये एक आसन ले आया, जिस पर वह बैठ गया। तदनन्तर प्रसादरूपी अमृतसे धुनी हुई उज्ज्वल दृष्टि से सुवेगकी ओर देखते हुए राजा बाहुबली ने कहा,-"सुवेग! कहो, भैया भरत सकुशल तो हैं। पिताजीको लालित-पालित विनीताकी सारी प्रजासानन्द है न ? कामादिक छः शत्रुओंकी तरह भरतक्षेत्रके छओं खंडों को महाराजने निर्विघ्न जीत लिया है न ? साठ हज़ार वर्ष तक विकट युद्ध करने के बाद सेनापति आदि सब लोग सकुशल लौट आथे हैं न ? सिन्दूरसे लाल रंगमें रंगे हुए कुम्भस्थलोंवाले, आकाशको सन्ध्याकालके मेघोंकी तरह रञ्जित करनेवाले हाथियोंकी श्रेणी ज्यों की त्यों है न ? हिमालय तक पृथ्वीको आक्रान्त कर लौटे हुए महाराजके उत्तम अश्व ग्लानि-रहित हैं न? अखण्ड
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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