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________________ moon प्रथम पवं ३६१ आदिनाथ-चरित्र राजने हर्षित हृदयसे सुन्दरीको दीक्षा ग्रहण करनेकी आज्ञा दे दी। इस आज्ञाको पाकर वह सुन्दरी, जो तपसे कृश हो रह थी, ऐसी हर्षित हुई, कि आनन्दके उच्छ्वासके मारे वह हृष्टपुष्ट मालूम पड़ने लगी। इसी समय जगत्पी मयूरको मेघके समान हर्ष देनेवाले भगवान् ऋषभ-स्वामी विहार करते हुए अष्टापद गिरिपर आ पहुँ. चे। उस पर्वतके ऊपर देवताओंने रत्न, सुवर्ण और चाँदीका मानों दूसरा पर्वत ही हो, ऐसा उत्तम समवशरण बनाया। उसी में बैठ कर प्रभु देशना देने लगे। गिरिपालकोंने तत्काल भरतपतिसे आ कर यह बात कही। यह वृत्तान्त श्रवण कर मेदिनी. पतिको उससे भी अधिक आनन्द हुआ, जितना उन्हें भरत-क्षेत्रके छओं खण्डों पर विजय प्राप्त करनेसे होता। स्वामीके आग. मनका समाचार सुनाने वाले सेवकोंको उन्होंने साढ़े बारह करोड़ मुहरें' इनाममें दी और सुन्दरीसे कहा,-"देखो, तुम्हारे मनोरथके मूर्तिमान स्वरूप जगद्गुरु विहार करते हुए यहीं आ पहुँचे हैं।” इसके बाद चक्रवतीने दासीजनोंकी तरह अन्तःपुरकी स्त्रियोंसे सुन्दरीका निष्क्रमणाभिषेक करवाया। सुन्दरीने स्नान कर, पवित्र विलेपन लगा, मानों दूसरा विलेपन किया हो ऐसी उज्जल किनारीदार साड़ी तथा उत्तम रत्नालङ्कार पहन लिये। यद्यपि उसने शीलरूपी सर्वोत्तम अलङ्कार धारण कर ही रखा था, तथापि आचारकी रक्षाके लिये उसने अन्य अलङ्कार भी पहन लिये। उस समय रूप सम्पत्तिसे सुशोभित सुन्दरी
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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