SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम पर्व ३८७ আৰিনাথ-অবিস্ব रत्न, मणिरत्न और नवों निधियाँ वर्तमान थीं। उन्हींकी नगरी में उत्पन्न हुए सेनापति, गृहपति, पुरोहित और वर्द्धकि-ये चार नर-रत्न थे। वैताढ्य-पर्वतके मूलमें उत्पन्न होनेवाले गजरत्न और अश्वरत्न तथा विद्याधरोंकी उत्तम श्रेणीमें उत्पन्न स्त्री-रत्न भी उन्हें प्राप्त थे। उनकी मूर्ति नेत्रोंको आनन्द देनेवाली तथा चन्द्रमाकी तरह शोभायमान थी। अपने असहनीय प्रतापके कारण वे सूर्यके समान चमक रहे थे। जैसे समुद्रफे मध्यभागमें क्या है, यह कोई जल्दी नहीं जान पाता, वैसे ही उनके हृदयमें क्या है, यह बात कोई शीघ्र नहीं मालूम कर पाताथा । उन्हें कुर की तरह मनुष्यों पर स्वामिता मिली हुई थो। जम्बूद्वीप, जैसे गङ्गा और सिन्धु आदि नदियोंसे शोभा पाता है, वैसेही वे भी पूर्वोक्त चौदहों रत्नोंसे शोभित थे। विहार करते हुए ऋषभप्रभुके चरणोंके नीचे जैसे नव सुवणे-कमल रहते हैं, वैसे ही उनके चरणों के नीचे नवों निधियाँ निरन्तर पड़ी रहती थीं। वे सदा सोलह हज़ार पारिपार्श्वक देवताओंसे घिरे रहते थे, जो ठीक बड़े दामों पर खरीदे हुये आत्मरक्षकसे मालूम पड़ते थे। बत्तीस हज़ार राजकन्याओंकी भांति बत्तीस हजार राजागण निर्भर भक्तिके साथ उनकी उपासना करते रहते थे। बत्तीस हज़ार नाटकोंकी तरह बत्तीस हज़ार देशोंकी बत्तीस हज़ार राजकन्याओंके साथ वे रमण किया करते थे। संसारके वे श्रेष्ठ राजा तीन सौ तिरेसठ दिनोंके वर्षकी भाँति तीन सौ तिरेसठ रसोईदारों से सेवित थे। अठारह लिपियोंका प्रवर्तन करनेवाले भगवान्
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy