SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम पर्व ३७७ आदिनाथ चरित्र स्वीकार करते और उन पर कृपा करते थे, खेतों में पड़ने वाली गायोंकी तरह, गावोंमें चारों ओर फैलने वाले सैनिकोंको अपने आज्ञारूपी उग्रदण्डसे रोकते थे, बन्दरोंकी तरह वृक्षोंपर चढ़ कर अपने तई (महाराजके तई ) हर्ष - पूर्वक देखने वाले गाँव के बालकोंको पिताकी तरह प्रमसे देखते थे, धन, धान्य और जीवन से निरुपद्रवी गांवों की सम्पत्ति को अपनी नीतिरूपी लता के फलरूपसे देखते थे; नदियोंको कीचयुक्त करते थे; सरोवरों सोखते थे और बावड़ी तथा कूओंको पाताल- विवरकी तरह खाली करते थे । दुर्विनीत शत्रुओंको शिक्षा देनेवाले महाराज भरत इस तरह मलय पवनकी तरह लोगों को सुख देते हुए और धीरे-धीरे चलते हुए अयोध्यापुरीके समीप आ पहुँचे । मानों अयोध्याका अतिथिरूप सहोदर हो, इस तरह अयोध्या के पासकी ज़मीन में महाराजने पड़ाव डाला। फिर राज शिरोमणि भरतने राजधानीको मनमें यादकर उपद्रव रहित प्रोतिदायक अष्टम तप किया । अष्टम भक्त के अन्त में पौषधालय से बाहर निकल, अन्य राजाओंके साथ दिव्य भोजनसे पारणा किया । अयोध्या की विशेष शोभा । इधर अयोध्या में स्थान-स्थान पर, मानों दिग् दिगन्तसे आई हुई लक्ष्मीके खेलनेके झूले हो; ऐसे ऊंचे ऊंचे तोरण बँधने लगे । जिस तरह भगवानके जन्म समय में देवता सुगन्धित जलकी वर्षा करते हैं, उसी तरह नगर के लोग प्रत्येक
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy