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________________ प्रथम पर्ब आदिनाथ-चरित्र भावनाओं से युक्त होने से मोक्ष के कारण होते हैं। प्रमाद के योगसे त्रस और स्थावर जीवोंके प्राण नाश न करनेको “अहिंसा" व्रत कहते हैं। प्रिय, हितकारी और सत्य वचन बोलने को "सुनत" प्रत या सत्यव्रत कहते हैं। और अहितकारी सत्य वचन भी असत्य के समान है। अदत्त वस्तु को ग्रहण न करना; यानी बिना दी हुई चीज न लेना “अस्तेय" व्रत कहलाता है, क्योंकि द्रव्य मनुष्य का बाहरी प्राण है। इसलिये उसको हरण करने वाला—उसे चुराने वाला उसके प्राण हरण करने वाला समझा जाता है। दिव्य और औदारिक शरीर से अब्रह्मचर्य सेवनकामन, बचन और कायासे, करना, कराना और अनुमोदन करनाइन तीन प्रकारों का त्याग करना “ब्रह्मचर्य" व्रत कहलाता है। उसके अठारह भेद होते हैं। सब पदार्थों के ऊपर से मोह दूर करना “अपरिग्रह” व्रत कहलाता है ; क्योंकि मोहसे असत् पदार्थ में भी चित्तका विप्लव होता है । यतिधर्मके व्रती यतीन्द्रोंको इस तरह सर्वसे चारित्र कहा है और गृहस्थों को देशसे चारित्र कहा है। ____समकित मूल पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, और चार शिक्षाव्रत-इस तरह गृहस्थों को बारह व्रत कहे हैं। बुद्धिमान् पुरुषों को लंगड़े, लूले, कोढ़ी और कुणित्व आदि हिंसा के फल देखकर निरपराधी त्रस जीवों की हिंसा संकल्प से छोड़ देनी चाहिये। भिनभिनापन, मुखध्वनि रोग गूंगापन, और मुखरोग-इनको असत्यका फल समझ कर, कन्या अलीक वगैरः पाँच बड़े बड़े असत्य छोड़ने चाहिएं। कन्या, गाय और जमीन के सम्बन्ध में
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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