SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदिनाथ चरित्र ३०० प्रथम पर्व प्राणियों के लिये देदीप्यमान और प्रज्वलित अग्नि के समान है । इसलिये विद्वानोंको उसमें लेशमात्र भी प्रमाद करना उचित नहीं; क्योंकि रात में उल्लङ्घन करने योग्य मरुदेश - मारवाड़ में अज्ञानी के सिवा और कौन प्रमाद करें ? अनेक जीवयोनि रूप भँवरों से आकुल संसार-सागर में, उत्तम रत- समान मनुष्य जन्म प्राणियों को बड़ी कठिनाई से मिलता है । दोहद या खाद पूरने से जैसे वृक्ष फल - युक्त होता है; उसी तरह परलोक-साधन करने से प्राणियों को मनुष्य जन्म सार्थक होता है । इस जगत् में दुर्जनों की वाणी जिस तरह सुनने में पहले मधुर और मनोमुग्धकर और शेषमें अतीव भयङ्कर विपत्तियों का कारण होती है; उसी तरह विषय भोग भी पहले मधुर और परिणाम में भयङ्कर और जगत् को ठगने वाले हैं । विषय पहले बड़े मधुर और मनको मोहने वाले मालूम होते हैं ; प्राणी विषयों में बड़ा सुख-आनन्द समझते हैं; उनके विषम विषमय फल भोगने पड़ते हैं । वे उनसे बुरी तरह ठगे जाते हैं। उनके धोखे में आकर वे अपने मनुष्य जन्म को वृथा नष्ट करते और शेषमें उन्हें नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेकर अनेक प्रकारके घोरातिघोर कष्ट उठाने पड़ते हैं । जिस तरह अधिक उँचाईका अन्त पतन होने या पड़ने में है; उसी तरह संसार के समस्त पदार्थों के संयोग का अन्त वियोगमें है । दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते हैं, अत्यधिक उचाईका परिणाम पतन है और संयोग का परिणाम वियोग है । जो बहुत ऊँचा चढ़ता है, वह नीचा गिरता है और जिसका संयोग होता हैं, उसका बि पर अन्तमें उन्हें
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy