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________________ आदिनाथ-चरित्र १४. अरनाथस्स: भगवांश्चतुर्थारनभोरविः । चतुर्थ पुरुषार्थ श्रीविलासं वितनोतु वः ॥ २० ॥ प्रथम पर्व जो भगवान् श्री अरनाथजी चौथे आरे में उसी तरह शोभायमान थे, जिस तरह आकाश में सूर्य शोभायमान होता है, वह भगवान् तुम्हें मोक्ष दें । काल-चक्र के दो भाग होते हैं : - ( १ ) उत्सर्पिणी, और ( २ ) अवसर्पिणी, इन दोनों मुख्य भागोंके छह-छह हिस्से होते हैं । इन हिस्सों को ही "आरे" कहते हैं । सुरासुरनराधीश मयूरनववारिदम् । कर्मद्रून्मूलन हस्तिमल्लं मल्लिभिष्टुमः ॥२१॥ जिन भगवान् को देखकर सुरपति, असुरपति और नरपति उसी तरह प्रसन्न हुए; जिस तरह नवीन मेघको देखकर मोर प्रसन्न होते हैं और जो भगवान् कर्म-रूपी वृक्षको निर्मूल करनेमें ऐरावत हाथी के समान हैं, उन्हीं मल्लीनाथ भगवान् की हम स्तुति करते हैं । * कर्म - बन्धनमें बँधे रहने से प्राणी का जन्म-मरणसे पीछा नहीं छूटता । जब तक कर्मों की जड़ नाश नहीं होती, तब तक प्राणी को बारम्बार जम्म सेना और मरना पड़ता है। जो कर्म को जड़ से उखाड़ फेकते हैं, वे मोह लाभ करते हैं, उन्हें फिर जनमना और मरना नहीं पड़ता ।
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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