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________________ आदिनाथ चरित्र १६४ प्रथम पर्व साथ बज उठते हैं; उसी तरह स्वर्ग की शाश्वत घण्टियाँ बड़े ज़ोरों से बज उठीं । पर्वतों की चोटियाँ के समान अचल और अडिग इन्द्रों के आसन, संभ्रम से हृदय काँपता है इस तरह, काँप उठे । उस वक्त सौधर्म-देवलोकाधिपति सौधर्मेन्द्र के नेत्र काँपने के आटोप से लाल होगये । ललाट पट्टपर भृकुटी बढ़ानेसे उनका चेहरा विक्राल होगया । भीतरी क्रोधरूपी अग्नि की शिखा की तरह उनके होठ फड़कने लगे । मानो आसन को स्थिर करने के लिए - उस की कँपकँपी बन्द करनेके लिए - वे एक पाँव को ऊँचा करने लगे और 'आज यमराज ने किसको चिट्टी दी है ? आज मौत का वारण्ट किसपर जारी हुआ है ? आज किसका काल पुकार रहा है ?' ऐसा कहकर, उन्होंने अपनाशूरातन रूप अग्नि को वायु-समान- -वज्र ग्रहण करने की इच्छा की । इन्द्र को कुपित केशरीसिंह की तरह देखकर, मानो मूर्त्तिमान होऐसे सेनापतिने आकर कहा, हे स्वामि ! मुझ जैसे सिपाही के होते हुए, आप स्वयं आवेश में क्यों आते हैं ? हे जगत्पति ! आज्ञा कीजिये, मैं आप के किस शत्रु का मान मर्दन करूँ ?" उसी क्षण, अपने मन का समाधान कर, इन्द्रने अवधिज्ञान से देखा, तो उसे मालूम हो गया कि, आदि प्रभुका जन्म हुआ है । उसके क्रोधका वेग तत्काल हष से गल गया, खुशीके मारे उसका गुस्सा फौरनही काफूर होगया । वृष्टिसे शान्त हुए दावानल वाले पवतकी तरह, इन्द्र शान्त हो गया । 'मुझे धिक्कार है जो मैंने ऐसा विचार किया, मेरा दुष्कृत मिथ्या हो' यह कहकर उसने इन्द्रास -
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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