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________________ आदिनाथ चरित्र १३२ प्रथम पर्व कुल परम्पराके विपरीत मत चलो । सम्पत्तिकी तरह अपने गुणों को भी गुप्त और पोशीदा रखो । जो स्वभावसे कपटी और दुर्जन हैं, उनका संसर्ग त्याग दो । कपटहृदय वाले दुष्टोंकी संगति मत करो ; क्योंकि दुष्टोंका संसर्ग हड़किये कुत्तेके विषकी तरह काल योगले विकारको प्राप्त होता है। बच्चे ! कोढ़ जिस तरह फैलने से शरीरको दूषित कर देता है; उसी तरह तेरा मित्र अशोकदत्त ज़ियादा हेलमेल और परिचयसे तुझे दूषित कर देगा तेरे चरित्रको कलुषित कर देगा । यह मायावी गणिका - वेश्या की तरह, मनमें और, वचनमें और एवं क्रियामें और ही है । यह कहता कुछ है, करता कुछ है और इसके मनमें कुछ है । यह मन वचन और कर्ममें asai नहीं है । सागरचन्द्रका जवाब | सेठ चन्दनदास इस प्रकार आदर पूर्वक उपदेश देकर चुप हो गया, तब सागरचन्द्र मनमें इस तरह विचार करने लगा :- 'पिताजी जो मुझे इस तरहका उपदेश दे रहे हैं, इससे मालूम होता है कि, उनको प्रियदर्शना-सम्बन्धी वृत्तान्त ज्ञात हो गया है । मेरा मित्र अशोकदन्त पिताजीको सङ्गति करने योग्य नहीं जँचता । यह उसे मेरे सङ्ग रहनेके लायक़ नहीं समझते। इन्हें उसकी मुहबत से मेरे बिगड़ जानेका भय है । मनुष्यका भाग्य मन्द होनेसे ही, ऐसे सीख देने वाले गुरुजन नहीं होते । सौभाग्य वालोंको हीं ऐसी सत्शिक्षा देने वाले गुरुजन मिलते हैं। भलेही उनकी मरज़ी
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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