________________
७८ ]
संप्रतिः रोहगुप्तश्च
भो काम ! वामनयणा तुह मुख-मच्छं जोहा वसंत-पिग- पंचम-चंद - मुक्खा । ते सेवगा हरि - विरंचि - महेसराई
हा हा हयास ! मुणिणाऽवि कहं हओ सि । ६०३ ॥ इच्चाइय पबंधो सुपसिद्धो तेण मे न इह लिहिओ । वीओ दुसय पनरस वरिसंते तस्स सुरवासो ।। ६०४ ॥ इति स्थूलभद्रः सिरि-थूलभद्द - सीसा सिरिसीहगिरि - सुहत्थिवरनामा । वरनाणदंसणधरा संवेगनिही अहं वंदे ॥ ६०५ ॥
च्छिणे जिणकप्पे काही जिणकप्प - तुलणमिह धीरो । तं वंदे मुणि-वसहं महागिरिं परम-चरणधरं ।। ६०६ ॥ जिणकप्प - परीकम्मं को कासी जस्स संथवमकासी । सिट्ठि-घरंमि सुहत्थी तं अज्जमहागिरिं वंदे ॥ ६०७ ॥ वंदे अज - सुहत्थिं मुणि-पवरं जेण संपई राया । रिद्धिं सव्व-पसिद्धिं चारित्तं पाविओ परमं ॥ ६०८ ॥
कोसंब - इब्भ-गेहे विविहं भिक्खं मुणीण दियमाणं । दट्ठूणं दुब्भिक्खे को जा जाइ गुरु-पासे ॥ ६०६ ॥ जाणित्ता जग्गत्तं गुरवो भोयणं दिति ।
रत्ती विसूइयाए सुहभावा संपई जाओ ।। ६१० ॥
उज्रेणीए पत्ता गुरवो दिट्ठा य तेण राएणं । उवलक्खह मं पुच्छइ भणइ गुरू संपई राया ।। ६११ ।। पुणरवि पुट्ठे णाओ ताहे वंदइ गुरूण सो पाए । उप्पण्ण-जाईसरणो पडिवज्जइ धम्ममइ - रम्मं ॥ ६१२ ॥ सपाय - कोडी - जिणबिंब सपाय - लक्ख- नवीन -जिणभवणे । तेतीस - सहस- जिणोधारे तह पणवई सहसा ।। ६१३ ।। पित्तलमय पडिमाओ दाणसाला तहेव सत्तसया ।
इच्चाइ पुण्ण- कलिया तिखंडभूमी
कया तेण ॥ ६१४ ॥
इति
सम्प्रतिः ।।
कल्पान्तर्वाच्यः
वसन्ततिलका