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[ कल्पान्तर्वाच्यः
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गौतमविलापः सिरि-गोयमो य पभणइ एह खामेह जिणवरं भो! भो!। तो भणइ जिणवरिंदो मा आसाएहि केवलिणो।। ६३३॥ आउट्टो खामेइ चिंतइ मे नत्थि केवलं नाणं। भणइ जिणो जो वंदइ अट्ठावय-जिणे ससत्तीए॥६३४ ॥ सुच्चा जिणमापुच्छिय अठ्ठावय-जिणवराण नमणत्थं । चलिओ गोयम-सामी,-तप्पढमं तावसा सुणिउं ।। ६३५॥ पढमं बिइयं तइयं संपत्ता मेहलं ति-भेया य। दिण्ण-कोडिण्ण-सेवाल-नामा पासंति इज्जतं ।। ६३६॥ पिच्छंताण वि तेसिं चडिओ ते विम्हिया भणंति य। कुव्वेमो गुरुमेयं वलमाणं तं नमंति य॥६३७। अम्हे तुम्हं सीसा तो ते सव्वे वि दिक्खिया मुणिणा। पारण-परिसाए-जिणदंसणेण ते पत्ता केवलं सब्वे ।। ६३८॥ पायाहिणं करित्ता केवलि-परिसाए ते गया सव्वे। पुव्वं व भणण वारण महक्खेयं जिणवरो भणइ ।। ६३६॥ पुव्व-भव-नेह-कारण मुइत्ता भणइ मा कुणसु खेयं। इत्तो अहं तुमं ही अंते तुल्ला भविस्सामो॥ ६४०॥ स-निव्वाण-समयंमि पेसिओ गोयमो जिणवरिदेण। जा देवसम्म पुच्छिय वलिओ देवाण सुणइ रवं ॥ ६४१॥ वीर-जिणंदो पत्तो निव्वाणं गोयमो इमं सुचा। वजाहय व्व पडिओ धरणीयले चेयणा-रहिओ।। ६४२ ॥ खणमित्तागय-सण्णो कुणइ विलावं च वीर! वीर! पहू। मं मुत्तूणं चलिओ जुत्तं न कयं तए सामी!॥ ६४३ ॥ पसरइ मिच्छत्त-तमं गजंति कुतित्थ-कोसिया अज। दुभिक्ख-डमर-वेराइ निसायरा हुंति सप्पसरा ॥ ६४४॥ अथमिए जयसूरे मउलेइ तुमंमि संघ-कमलवणं । उल्लसइ कुमय-तारा-नियरो वि हु अन्ज जिणवीर ! ।। ६४५॥ तमगसि य ससि व्व नहं विज्झाय पईव यं व निसि भवणं। भरहमिणं गयसोहं जाय-मणाहं च पहु! अज्ज ।। ६४६॥