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मरीचिः
न वि ते पारिवज्जं वंदामि अहं इमं च ते जम्मं । जं होहिसि तित्थयरो अपच्छिमो तेण वंदामि ॥ २२३ ॥ तं वयणं सोऊणं तिपयं अप्फोडिऊण तिक्खुत्तो । अब्भहिय- जाय-हरिसो तत्थ मरीई इमं भणइ ॥ २२४ ॥
जइ वासुदेव-पढमो मूयाइ-विदेह-चक्कवट्टित्तं । चरमो तित्थयराणं होउ अलं इत्तयं मज्झं ।। २२५ ॥ अहयं च दसाराणं पिया य मे चक्कवट्टि-वंसस्स । अजो तित्थयराणं अहो कुलं उत्तमं मज्झ ॥ २२६ ॥
पुच्छंताण कहेइ उवट्ठिए देइ सामिणो सीसे । गेलणे पडियरणं कविला ! इत्थं पि इहयं पि ॥ २२७ ॥ दुभासिए इक्केण मरीई दुक्ख - सागरं पत्तो । भमिओ
कोडाकोडी-सागर - सिरिनाम-धिज्जाणं ।। २२८ ।।
तं मूलं संसारो नीया गुत्तं च कासि तिवलीए । अप्पडितो बंभे कविलो अंतट्ठिओ कहइ ॥ २२६ ॥ जाइ-कुल-रूव-बल-सुय-तव- लाभस्सिरिय अट्ठमयमत्तो । एयाई चिय बंधइ असुहाई बहुं च संसारे ॥ २३० ॥ अह दिवसे बासीइ वसइ तहिं माहणीइ कुच्छंसि । चिंतइ सोहम्मवई साहरिउं जिणं कालेण ॥ २३१ ॥ अरिहंत-चक्कवट्टी बलदेवा तह य वासुदेवा य । एए उत्तम पुरिसा न हु तुच्छ - कुलेसु जायंति ॥ २३२ ॥ -कुल- भोग-खत्तिय - कुलेसु इक्खाग-नाय- कोरव्वे । हरिवंसे य विसाले आयंति तहिं पुरिससीहा ॥ २३३ ॥ अह भइ गमेसिं देविंदो एस इत्थ तित्थयरो । लोगुत्तमो महप्पा उववण्णो माहण- कुलंमि ॥ २३४॥
कल्पान्तर्वाच्यः
परिआइत्ता दुच्छंपि वेउब्विय- समुग्धाएणं समोहणइ, समोहणित्ता उत्तर- वेउव्विअं रूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरिआए चवलाए चंडाए जयणाए उद्धआए सिग्घाए (छेआए) दिव्वाए देवगईए वीईवयमाणे