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________________ B सोमसेनभट्टारकविरचित रखते हों तो उनको मैं सहज देता हूँ। इसमें कहीं भी किसी विषयका उद्देश्य नहीं है । और न उनकी इच्छापूर्तिके निमित्त जल देनेसे मिथ्यादृष्टि ही हो जाता है । क्योंकि सच्चे देव, गुरु, शास्त्रसे द्वेष करना और कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र से रति करनेका नाम मिथ्यात्व है । देव शब्दका अर्थ यहाँ पर आप्त है । कुदेव शब्द देवगति - संबन्धी देवोंसे तात्पर्य नहीं है । इस विषयको अन्यत्र किसी प्रकरण में लिखेंगे । सारांश इतना ही है कि व्यंतरदेव जलकी आशा रखते हैं और वे तृप्त भी होते हैं ॥ ११ ॥ हस्ताभ्यां विक्षिपेत्तोयं तत्तीरे सलिलाद्बहिः । उत्तार्य पीडयेद्वस्त्रं मन्त्रतो दक्षिणे ततः ॥ १२ ॥ यह उपर्युक्त श्लोक पढ़कर, हाथमें जल लेकर, उस जलाशयके तीरपर, जलसे बाहर जलकी अंजली छोड़े। इसके बाद वस्त्र उतारकर मंत्रपूर्वक दक्षिण दिशाकी तरफ निचोड़े ॥ १२ ॥ केचिदसत्कुले जाता अपूर्वव्यन्तरासुराः । ते गृह्णन्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पीडनोदकम् ॥ १३ ॥ और कहे कि कोई हमारे कुलमें उत्पन्न हुए पुरुष मरकर व्यन्तर या असुर जातिके देव हुए हों तो वे मेरे द्वारा वस्त्र निचोड़ कर दिया हुआ जल ग्रहण करे ॥ १३ ॥ दर्भान्विसृज्य तत्तीरे ह्युपवीती द्विराचमेत् । अक्लिन्नवस्त्रं सम्प्रोक्ष्य शुचीव इति मन्त्रतः ॥ १४ ॥ परिधाय सुवस्त्रं वै युग्मवस्त्रस्य मन्त्रतः । प्रागेव निमृजेद्देहं शिरोऽङ्गान्यथवा द्वयम् ।। १५ ।। उस जलाशय के तीरपर दर्भोंको छोड़कर यज्ञोपवीतको मालाकी तरह गलेमें लटका कर दो वार आचमन करे । " शुचीव " ऐसा मंत्र पढ़कर पहनने के लिए जो शुष्क वस्त्र पासमें है उसका प्रोक्षण करे । अर्थात् उसे जलके छींटे डालकर पवित्र करे । पश्चात् युग्मवस्रके मंत्रको पढ़कर कपड़े पहने । और कपड़े पहननेके पहले ही अपने शरीरको अथवा सिरको पोंछ ले ॥ १४ ॥ १५ ॥ तस्मात् कायं न मृजीत ह्यम्बरेण करेण वा । श्वानलेन साम्यं च पुनः स्नानेन शुध्यति ॥ १६ ॥ कपड़े पहननेके बाद कपड़ेसे अथवा हाथसे शरीरको न पोंछे । क्योंकि बादमें शरीर पोंछनेसे वह कुत्तेके चाटनेके बराबर हो जाता है। और फिर स्नान करनेसे पवित्र होता है । यह भी एक वस्तुका स्वभाव है, तर्क करनेकी कोई बात नहीं है कि ऐसा क्यों हो जाता है। वस्तुके स्वभावमें क्यों काम नहीं देता है। कोई कहे कि अग्नि गर्म क्यों होती है तो कहना पड़ेगा कि उसका स्वभाव है ॥ १६ ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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