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________________ सन्ध्या के समय, पूजा के समय, संक्रान्तिके दिन, ग्रहणके दिन, उल्टी हो जानेपर, मदिरा, मांस हड्डी, चर्म, इनका स्पर्श हो जाने पर, मैथुन करनेपर, टट्टी होकर आने पर, बीमारी से उठने पर, मशान घाट के ऊपर जानेपर, किसीका मरण सुनने पर, खराब स्वप्न के आनेपर, मुर्दे से छू जानेपर, चांडालादिका स्पर्श हो जानेपर, विष्ठा मूत्र, कौआ, उलू, स्वान, ग्राम-शूकरोंसे छू जानेपर, ऋषि मृत्यु हो जानेपर, अपने कुटुंबी की दूरसे या पाससे मरणकी सुनावनी आनेपर, उच्छिष्ठ, अस्पर्श, वमन, रजस्वला आदिका संसर्ग हो जानेपर, अस्पर्श मनुष्योंके हुए हुए वस्त्र, अन्न, भोजन, आदिसे छू जाने पर और जीमते समय पत्तल फट जानेपर, दतौन के साथ साथ पूर्वोक्त मंत्र-यंत्रे पूर्वक शुद्ध जलसे तीन वार स्नान करे, अपने पहने हुए सब कपड़ों को धोवे तथा अर्घ, तर्पण, मंत्र, जप, दान, पूजा वगैरह सब कार्य करे । इस तरह करनेसे गृहस्थियोंकी बाह्य अभ्यन्तर शुद्धि होती है ॥ १०७ ॥ ११२ ॥ इत्येवं गृहमेधिनां शुचिकरः स्वाचारधर्मो मया, प्रोक्तो जैनमतानुसारसकलं शास्त्रं समालोक्य वै, शौचाचारवृषं विना तनुभृतां नास्त्यत्र धर्मः कचित्, मन्त्राँस्तस्य विधानतो भवभिदः संक्षेपतः कथ्यते ॥ ११३ ॥ ४५ जैनमतके कितने ही शास्त्रोंका अवलोकन कर यह उपर्युक्त गृहस्थोंकी बाह्यशुद्धि करनेवाले आचरका कथन किया गया। क्योंकि गिरस्तोंका बिना शौचाचार के इस संसारमें कहीं पर और कोई धर्म नहीं है । अब संसार नाशके कारण शौचाचार सम्बन्धी मंत्रोंका विधिपूर्वक संक्षेपसे कथन किया जाता है ॥ ११३ ॥ ॐ ही क्ष्वी स्नानस्थानभूः शुद्धयतु स्वाहा । इति स्नानस्थानं शुचिजलेन सिञ्चयेत् । यह मंत्र पढ़कर स्नान करनेकी जगहको पवित्र जलसे सींचे । ॐ हाँ ही हूँ हाँ हः असि आ उ सा इदं समस्तं गंगासिंध्वादिनदीनदतीर्थजलं भवतु स्वाहा । इत्यनेन स्नानजलं हस्ताग्रेण स्पृशेत् । इस मंत्र को बोल कर अपने हाथसे स्नानके जलको छूवे । झं ठं स्वरावृतं योज्यं मण्डलद्वयवेष्टितम् । तोये न्यस्याग्रतर्जन्या तेनानुस्नानमावहेत् ॥ ११४ ॥ इत्युक्तं मंत्रं जलमध्ये लिखित्वा मंत्रयेत्ततः ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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