SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सोमसेनमहारकविरचितं प्रणव---- जिसकी आदिमें है, नमः जिसके अन्तमें है ऐसी यह तीनों भुवनोंको मोहित attarai एकाक्षरी नामकी विद्या है। यह जप करनेवालेको हमेशा उत्तम उत्तम फल देती है । भावार्थ - " ओ हीं नमः " इस मंत्र को अपनेवालेके इष्टकी सिद्धि होती है ॥ ७३ ॥ १८ अर्हमित्यक्षरं ब्रह्म वाचकं परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणमाम्यहम् ॥ ७४ ॥ अहं ॥ अर्ह यह ब्रह्माक्षर है जो परमेष्ठीका वाचक हैं, और सिद्धचक्रका सुख्ख चीज है । उसको मन, वचन और कायसे नमस्कार करता हूँ ॥ ७४ ॥ चतुर्वर्णमयं मन्त्रं चतुर्वर्णफलप्रदम् । चतूरात्रं जपेद्योगी चतुर्थस्य फलं भवेत् ।। ७५ ।। अरिहंत ॥ “ अरिहन्त ” यह चार वर्णका मंत्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों वर्गोंकी सिद्धि करनेवाला है । यदि योगीश्वर इस मंत्रका चार रात्रिपर्यन्त जप करे तो उन्हें मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ ७५ ॥ विद्यां षड्वर्णसम्भूतामजय्यां पुण्यशालिनीम् । जपन् प्रागुक्तमभ्येति फलं ध्यानी शतत्रयम् ।। ७६ ।। अरिहंत सिं ॥ जो ध्यान पुरुष, अजेय और पुण्यमय " अरिहन्त सिद्ध " इस छह अक्षरके मंत्रके तीन सौ जप करता है वह मुक्तिका स्वामी बनता है ॥ ७६ ॥ चतुर्दशाक्षरं मन्त्रं चतुर्दशसहस्रकम् । यो जपेदेकचित्तेन स रागी रागवर्जितः ।। ७७ ।। जो लोग एकाग्रचित्तसे, (( श्रीमद्वृषभादिवर्धमानान्तेभ्यो नमः चौदह हजार जप करते हैं वे रागी होते हुए भी राग रागरहित हैं ॥ ७७ ॥ " इस चौदह अक्षरवाले मंत्रके पञ्चत्रिंशद्भिरेवात्र वर्णश्च परमेष्ठिनाम् । मन्त्रैः प्राकृतरूपैश्च न कस्यापि कृतो व्ययः ॥ ७८ ॥ स्मर्तव्यः सानुरागेण विषयेष्वपरागिणा । वीरनाथप्रसादेन धर्म विद्धता परम् ।। ७९ ।। अपराजितमंत्रोऽयं सर्वविघ्नविनाशमम् । मङ्गलेषु च सर्वेषु प्रथमं मङ्गलं मतः ॥ ८० ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy