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________________ त्रैवर्णिकाचार। व्युपरतक्रियानिवृत्तिस्तुर्य शुक्लमुच्यते । एतेषां नामतोऽर्थश्च ज्ञायते गुणवत्तया ॥ ४०॥ शुक्लध्यानके चार भेद हैं और यह साक्षात् मोक्षके कारण हैं । पहला पृथक्त्ववितर्कवीचार, दूसरा एकत्ववितर्कअवीचार तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और चौथा व्युपरतिक्रियानिवृत्ति है। इनका अर्थ इनके नामसे ही भले प्रकार स्पष्ट है ॥ ३८-३९-४०॥ पृथक्त्वेन वितर्कस्य वीचारो यत्र तद्विदुः । सवितर्क सवीचारं पृथक्त्वादिपदाह्वयम् ॥ ४१ ॥ जिस ध्यानमें जुदा जुदा वितर्क--श्रुत का वीचार-संक्रमण होता रहता है उसे पृथक्त्वसावतर्कसवीचार ध्यान कहते हैं। भावार्थ-जिसमें जुदा जुदा श्रुतज्ञान बदलता रहे उसे सवितर्कसवीचार-सपृथक्त्वध्यान कहते हैं ॥ ४१॥ एकक्त्वेन वितर्कस्य स्याद्यत्राविचरिष्णुता । सवितर्कमवीचारमेकत्वादिपदाभिधम् ॥ ४२ ॥ जिस ध्यानमें श्रुतज्ञानका संक्रमण न होता हो और जो एक रूपसे स्थिर हो उसे सवितर्कअवीचारएकत्वध्यान कहते हैं ॥ ४२ ॥ मनोवचनकायाँश्च सूक्ष्मीकृत्य च सूक्ष्मिकाम् । क्रियां ध्यायेत्परं ध्यानं प्रतिपातपराङ्मुखम् ॥ ४३ ॥ जिसमें मन वचन और कायको सूक्ष्म करके सूक्ष्म क्रियाका ध्यान किया जाय उसे सूक्ष्माक्रियाप्रतिपाति ध्यान कहते हैं । भावार्थ-यह ध्यान तेरहवें गुणस्थानवर्ती परमात्माके होता है । जब उनकी आयु एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रह जाती है तब इस ध्यानके योग्य वे होते हैं । जिस समय आयुकर्मकी स्थिति तो कम रह जाय और नाम, गोत्र और वेदनीयकी स्थिति अधिक हो उस समय उनकी आयुकर्मके समान स्थिति करनेके लिए वे दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण ऐसे चार समयोंमें चार समुद्धात करते हैं । लोकपूरण समुद्धात उन कर्मोकी स्थितिको वे आयुकर्मके बराबर कर देते हैं । इसके पश्चात् वे पुन: चार ही समयमें अपने आत्म-प्रदेशोंको शरीर-प्रमाण करके वादरकाययोगमें स्थित होते हैं और वादरमनोयोग और वचनयोगको सूक्ष्म करते हैं, पुन: काययोगको छोड़कर मनोयोग और वचनयोगमें स्थिति करते हैं और वादरकाययोगको सूक्ष्म करते हैं । पश्चात् सूक्ष्मकामयोगमें स्थिति कर मनोयोग और वचनयोगका निरोध करते हैं । इसके बाद वे साक्षात् सूक्ष्माक्रियध्यानका ध्यान करनेके याग्य होते हैं । बस यही सूक्ष्मकाययोगमें स्थिर होना तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान है ॥ ४३ ॥ _____ ततो निरुद्धयोगः सन्नयोगी विगतास्रवः । - समुच्छिन्नक्रियाध्यानमनिवृत्ति तदा भवेत् ॥४४॥ इसके बाद सम्पूर्ण योगोंसे रहित होकर और सर्व कर्मोंके आस्रवसे रहित होकर अयोगकेवली परमात्मा समुच्छिन्नक्रियव्युपरतिध्यानको ध्याते हैं। भावार्थ-चौहदवें गुणस्थानमें यह ध्यान होता है ।
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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