SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रैवर्णिकाचार । गुणेषु दोषेषु न यस्य चातुरी, निन्दा स्तुतिर्वा न हि तेन कीर्त्यते । जात्यन्धकस्येव हि धृष्टकस्य वै, रूपेत्र हसिाय परं विचारणा ॥ १५ ॥ जैसे जन्मान्ध पुरुषका रूपके विषयमें विचार जाहिर करना हास्यास्पद है वैसे ही जिस खल पुरुवमें गुण-दोर्षोंकी पहचान करनेकी चतुराई नहीं है, जो निन्दा और स्तुति करना भी नहीं जानता है फिर भी यदि वह उनके सम्बन्धमें बोले तो केवल उसकी हँसी ही होगी ॥ १५ ॥ काव्यं सूते कविरिह कलौ तद्गुणं सन्त एव, तन्वन्त्यारादुणगणतया स्व गुण ख्यापयन्तः । अम्भः सूते कमलवनकं सौरभं वायुरेव, देशं देशं गमयति यथा द्रव्यजोऽयं स्वभावः ॥ १६ ॥ लोकमें कवि तो केवल कविता करनेवाले होते हैं, किन्तु सज्जनगण उसके गुणोंको चारों ओर फैलाते हैं ऐसा करते हुए वे एक प्रकारसे अपने ही गुणोंकी प्रख्याति करते हैं । सो ठीक ही है, जो दूसरोंके गुणोंका बखान करते हैं उनके गुणोंका बखान पहले होता है । जैसे कि अल कमलोंको उत्पन्न करता है और उसकी सौरभको वायु देश देशमें ले जाता है; और वह वायु स्वयं उनकी सुगंधसे सुगन्धित होता है । द्रव्योंका स्वभाव ही प्रायः ऐसा होता है जो एक पुरुष किसी कार्यको कर देता है और उससे दूसरे पुरुष फायदा उठाते हैं ॥ १६ ॥ शुश्रूपये भव्यजना वदन्ते, जिनेश्वरैरुक्तमुपाश्रिताय ।। शब्दास्तदर्थाः सकलाः पुराणा, निन्दा न कार्या कविभिस्तु तेषाम् ॥ १७॥ जिस धर्मके स्वरूपको गणधरोंके लिए श्री जिनदेवन कहा था उसीको भव्यजन-गणघर, आचार्य--अपने भक्तोंको कहते हैं । सारे शब्द भी प्राचीन हैं और उनके वाच्य पदार्थ भी प्राचीन ही हैं। इस लिए जिन वाच्य अर्थोंके लिए जिन वाचक शब्दोंका प्रयोग जैसा जिनदेवने किया था वैसा ही आचार्य करते हैं। इस विषयमें कवियोंको उनकी निन्दा नहीं करना चाहिए ॥ १७॥ छन्दोविरुद्धं यदलक्षणं वा, काव्यं भवेच्चेन्निबिडं प्रमादात् । तदेव दूरीकुरुतात्र भव्यं, साध्वेव हि स्वीकुरुतात्र सन्तः ॥१८॥ यदि प्रमाद-वश कोई रचना छन्दशास्त्रसे विरुद्ध अथवा व्याकरणसे विरुद्ध हो तो उसे सज्जनगण छोड़ दें और जो भव्य-सुन्दर--हो, अच्छी हो उसे स्वीकार करें ।। १८ ॥ ___ परिहर्तव्यो दुर्जन इह लोके भूषितोऽपि गुणजालैः । मणिना भूषितमूर्धा फणी न किं भयङ्करो नृणाम् ॥ १९ ॥ दुर्जन यदि गुणोंसे अलंकृत भी हो तो भी उससे बचे रहना ही श्रेष्ठ है। क्या जिस सर्पके सिरपर मणि है वह डरावना नहीं होता। सारांश--माणिसे विभूषित सर्पकी तरह गुणयुक्त दुर्जनसे दूर ही रहना चाहिए ॥ १९ ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy