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________________ त्रैवर्णिकाचार । ३७५ इस श्लोकका भाव बराबर समझमें नहीं आया है । पर तौभी ऐसा मालूम पड़ता है कि दश दिन बालक मरे तो दो दिनका सूतक, और दशवें दिनकी रात बीतकर सूर्योदयके पहले पहले मरे तो तीन दिनका सूतक है । यह श्लोक ब्रह्मसूरि त्रिवर्णाचार में भी है। वहां इससे आगे एक श्लोक और है, जो दशवें दिन के बाद ग्यारवें आदि दिनोंमें मरे हुए बालकका सूतक माता-पिताके लिए दश दिनका करार देता है । अतः हमारी समझसे यह अर्थ उपयुक्त मालूम पड़ता है ॥ ५१ ॥ नाम्नः प्राक् प्रस्थिते बाले कर्तव्यं स्नानमेव च । तिलोदकं तदूर्ध्वं तु तत्पिण्डश्च व्रतात्परम् ॥ ५२ ॥ नामकरण से पहले बालक मरे तो स्नान करना चाहिए। नामकरण बाद मरे तो स्नान करें और तिलोदक देवें । तथा उपनयन संस्कारके बाद मरे तो स्नान करें, तिलोदक दें और पिंड दें ॥ ५२ ॥ संस्कारः स्यान्निखननं नाम्नः प्राक् बालकस्य तु । तदूर्ध्वमशनादर्वाग्भवेत्तदहनं च वा ।। ५३ ।। नामकरणसे पहले मरे हुए बालकका शरीर-संस्कार खनन अर्थात् जमीनमें गाड़ना है । नामकरण के बाद और अशनक्रियासे पहले मरे हुएका खनन अथवा दहन है । भावार्थ- नामकरणके पहले मरे तो जमीनमें गाढ़ें । तथा नामकरणके बाद और अशनक्रिया से पहले मरे तो उसे जमीन में गाड़ें या जलावें ॥ ५३ ॥ निखनने विधातव्ये संस्थितं बालकं तदा । भूषितं कृत्वा निक्षिपेत्काष्ठवदभुवि ।। ५४ । मरे हुए बालकको जमीन में गाड़ना हो तो उसे वस्त्र पहनाकर गढ़ा खोदकर उसमें लकड़ी की तरह लंबा सुला दें || ५४ ॥ दन्तादुपरि बालस्य दहनं संस्कृतिर्भवेत् । तयोरन्यतरं वाऽऽहुर्नामोपनयनान्तरे ।। ५५ ।। 1 दांत उग आने बाद बालक मरणको प्राप्त हो तो उसका दहन संस्कार करें। अथवा नामकरण और उपनयनसे पहले मरे हुए बालकका संस्कार खनन और दहन इन दोनों में से एक करें । यद्यपि विकल्पमें यह बात कही गई है तो भी इसका निर्वाह इस तरह करना चाहिए कि तीसरे वर्ष जो चूलाकर्म होता है उस चूलाकर्मसे पहले और नामकरणके बाद अर्थात् कुछ कम दो वर्ष तक तो जमीनमें ही गाड़ें, पश्चात् तीन वर्ष पूर्ण न हों तबतक जमीन में गाड़ें या जलावें- दोनोंमेंसे एक करें | तीन वर्षके बाद जमीनमें न गाड़ें किन्तु जलावें ॥ ५५ ॥ जातदन्तशिशोर्नाशे पित्रोर्भ्रातुर्दशाहकम् । प्रत्यासन्नसपिण्डानामेकरात्रमघं भवेत् ।। ५६ ।। -अप्रत्यासन्नबन्धूनां स्नानमेव तदोदितम् । आचतुर्थात्समासन्ना अनासन्नास्ततः परे ।। ५७ ॥ स्त्रपने भूषणे वाहे दहने चापि संस्थितम् । संस्पृशेयुः समासन्ना न त्वनासन्नबान्धवाः ।। ५८ ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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