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________________ त्रैवर्णिकाचार હે बताकर आहार लेना निमित्त दोष माना गया है । यह दोष इसलिए है कि ऐसा करनेमें रसास्वादन, दीनता आदि दोष पाये जाते हैं ॥ १०० ॥ वनीपक-दोष । पाषंडिकृपणादीनामतिथीनां तु दानतः । पुण्यं भवेदिति प्रोच्य अद्याद्ववनीपकम् ॥ १०१ ॥ पाषंडी, कृपण आदि अतिथियोंको दान देनेसे पुण्य होता है ऐसा दान-दाताको कह कर आहार लेना वनीपक-दोष है । भावार्थ-किसी दाताने पूछा कि महाराज ! कुत्तोंको रोटी डालने से; अन्धे, लूले, लंगड़े आदि दुःखी जीवोंको भोजन करानेसें, मधुमासादि भक्षण करनेवाले ब्राह्मणोंको तथा दीक्षाद्वारा उपजीवी पाषंडियों को आहार देनेते तथा कौवोंको खिलानेसे पुण्य होता है या नहीं ? उत्तर में वे साधु कहें कि होता है । इसका नाम वनीपक-दोष । तात्पर्य यह है कि दानपतिके अनुकूल वचन कहकर आहार लेना वनीपक-दोष है; क्योंकि ऐसा क कर आहार लेनेसे साधुओं में दीनता झलकती है ॥ १०१ ॥ जीवनक - दोष | जातिं कुलं तपः शिल्पकर्म निर्दिश्य चात्मनः । जीवनं कुरुतेऽत्यर्थ दोषो जीवनसञ्ज्ञकः ॥ १०२ ॥ अपनी जातिशुद्धि, कुलशुद्धि, तपश्वरण और शिल्पकर्मका निर्देश कर आजीविका करनाआहार ग्रहण करना जीवनक नामका दोष है । ऐसा करने में वीर्य निगूहन - शक्ति छिपाना, दीनता आदि दोष देखे जाते हैं; इसलिए यह दोष हैं १०२ ॥ क्रोधदोष और लोभदोष । क्रोधं कृत्वाऽशनं ग्राह्यं क्रोधदोषस्ततो मतः । चिल्लोभं प्रदर्शयति लोभदोषः स कथ्यते ॥ १०३ ॥ क्रोध करके अपने लिए भिक्षा उत्पन्न करना क्रोधदोष है । तथा लोभ दिखाकर भिक्षा उत्पन्न करना लोभदोष है ॥ १०३ ॥ पूर्वस्तुति और पश्चात्स्तुति दोष । त्वमिन्द्र चन्द्र इत्युक्त्वा मुक्तेनं स्तुतिदोषभाक् । पूर्व स्तुयात्पश्चात्स्तुतिपश्चान्मलो मतः ।। १०४ ॥ तुम बड़े इंद्र हो, चन्द्र हो इत्यादि प्रथम स्तुतिकर पश्चात् आहार ग्रहण करना पूर्वस्तुति - दोष है । तथा प्रथम आहार लेकर पश्चात्स्तुति करना पश्चात्स्तुति दोष है । भावार्थ- दातासे दान ग्रहण करनेके पहले ही कहना कि तुम बड़े भारी दान-दाता हो, तुम यशोधर हो, तुम्हारी कीर्ति जगतमें चारों ओर सुनाई दे रही है सो यह पूर्वस्तुतिदोष है । तुम पहले भारी दान-दाता थे, अब तुम दान देना कैसे भूल गये - इस तरह संबोधित करके भी आहार लेना पूर्वस्तुतिदोष है । तथा दान लेकर पश्चात् गुणगान करना कि तुम जगतमें विख्यात हो, भारी दानपति हो, तुम्हारा यश हमने सुन रखा है सो पश्चात् स्तुतिदोष है । ऐसा करना नग्माचार्य के कर्तव्य में दोप है। तथा इससे कृपणता मालूम पड़ती है; अतएव ये दोनों दोष हैं ॥ १०४ ॥ ४६
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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