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________________ ३३६ RAAAAAvvvvwww.mayawani Manavaivanamanvisawar सोमसेनभट्टारकविरचितविवाहे दम्पती स्यातां त्रिरात्रं ब्रह्मचारिणौ । अलंकृता वधूश्चैव सहशय्यासनाशिनौ ॥ १७२॥ विवाह हो जानेके बाद वे दंपती तीन दिनतक ब्रह्मचारी रहे-संभोगादि क्रिया न करें । अनंतर साथ सोवें, साथ बैठे और साथ भोजन करें। श्लोकके उत्तरार्धका पाठ ऐसा भी है: अधः शय्यासनौ स्यातामक्षारलवणासिनौ । अर्थात्-भूमिपर ही सोवें और भूमिपर ही बैठें। क्षार और लवणसे रहित भोजन करें ॥१७२॥ वध्वा सहैव कुर्वीत निवासं श्वशुरालये। चतुर्थदिनमत्रैव केचिदेवं वदन्ति हि ॥ १७३ ॥ कोई कोई आचार्य ऐसा कहते हैं कि वर, वधूके साथ साथ चौथे दिन भी सुसरालमें ही निवास करे ॥ १७३ ॥ . आगे " अथ परमतम्मृतिवचनं " ऐसा लिखकर ग्रन्थकार परमंतकी स्मृतिके वाक्य उद्धृत करते हैं। चतुर्थीमध्ये ज्ञायन्ते दोषा यदि वरस्य चेत् । दत्तामपि पुनदधात्पिताऽन्यस्मै विदुर्बुधाः ॥ १७४ ॥ पाणि-पीड़न नामकी चौथी क्रियामें अथवा सप्तपदीसे पहले वरमें जातिच्युतरूप, ईनिजातिरूप या दुराचरणरूप दोष मालूम हो जाय तो वाग्दानमें दी हुई भी कन्याको उसका पिता किसी दूसरे श्रेष्ठ जाति आदि गुणयुक्त वरको देवे, ऐसा बुद्धिमानोंका मत है। सो ही याज्ञवल्क्य स्मृतिमें कहा है दत्तामपि होत्पूर्वाच्छ्रेयांश्चेदर आव्रजेत् । मिताक्षराटीका--यदि पूर्वस्मात् वरात् श्रेयान् विद्याभिजनाधतिशययुक्तो वर आगच्छति, पूर्वस्य च पातकयोगो दुवृत्तत्वं वा तदा दत्तामपि हरेत्। एतच्च सप्तपदात्प्राग्दृष्टव्यं । इसका आशय यह है कि यदि पहले वरसे, जिसके साथ वाग्दान किया गया हो-विद्या, श्रेष्ठकुल-जाति आदि गुणोंसे युक्त दूसरा वर मिल जाय और पहले वरमें जातिच्युत या दुराचरण-रूप दोष हो तो वाग्दानमें दी हुई भी कन्याको पहले वरको न देवे । यह नियम सप्तपदीक पहले समझना। 'दत्ता' 'दत्वा' आदि शब्दोंका अर्थ इस प्रकरणमें टीकाकारोंने वाग्दाने दत्ता या वाचादत्ता किया है । यथा-- दत्वा कन्यां हरन दंड्यो व्ययं दद्याच सोदयं । टीका--कन्यां वाचा दत्वापहरन् द्रब्यानुबंधाद्यनुसारेण राज्ञा दंडनीयः । एतच्च अपहारकारणाभावे । सति तु कारणे 'दत्तामपि हरेत् कन्यां श्रेयांश्चेद्वर आव्रजेत्' इत्यपहारभ्यनज्ञानान दंड्यः । यच्च वाग्दाननिमित्तं वरेण स्वसंबंधिनां वोपचारार्थ धनं व्ययीकृतं तत्सर्व सोदयं सवृद्धिकं कन्यादाता वराय दद्यात् । भावार्थ--कन्याका पिता कन्याका वाग्दान करके विना ही कारण उस वरके साथ अपनी कन्याका व्याह न करे तो राजा उसके पिताको उसकी योग्यतानुसार दंड दे । परंतु ' दत्तामपि हरेत्' इत्यादि लोकके अनुसार न देनेका कारण उपस्थित हो तो दंड न दे । तथा वरका वाग्दानके
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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