SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रैवर्णिकाचार। ३१९ वर और कन्याका अपनी इच्छापूर्वक जो परस्पर आलिंगनादिरूप संयोग है वह गांधर्वविवाह है । यह विवाह माता-पिता और बंधुओंकी बिना साक्षीके कन्या और वरकी अभिलाषासे होता है । अतः यह केवल मैथुन्य-कामभोगके लिए होता है ।। ७६ ॥ राक्षस-विवाह । हत्वा भित्वा च छित्वा च क्रोशन्ती रुदती गृहात् । प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते ॥ ७७॥ १. कन्या-पक्षके लोगोंको मारकर उनके अंगोपांगोंको छेदकर, उनके प्राकार (परकोटा), दुर्ग आदिको तोड़-फोडकर 'हा पिता मैं अनाथिनी हरण की जा रही हूं।' इस तरह चिल्लाती हुई और आंसू डाल-डालकर रोती हुई कन्याको जबर्दस्तीसे हरण करना सो सक्षसीववाह है ॥ ७७ ॥ __ पैशाच-विवाह । मुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति । स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचः कथितोऽष्टमः ॥ ७८ ॥ सोई हुई, नशेसे चूर, अपने शीलकी संरक्षासे रहित कन्याके साथ एकान्तमें समागम करना पिशाचविवाहै है । यह विवाह पापका कारण है, और सब विवाहोंसे निंद्य है ॥ ७८ ॥ . कन्यादानं निशीथे चेद्वरायोपोषिताय च । उपोषितः सुतां दद्यात् ब्राह्मादिषु चतुष्वेपि ॥ ७९ ॥ कन्यादानका मुहूर्त रात्रिका हो तो ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य, इन चार धर्म्य विवाहोंमें कन्याका पिता उपवासपूर्वक उपोषित ( जिसने उपवास किया है ऐसे) वरको कन्या-दान दे॥७९॥ अन्यमतम्-मतान्तर । कन्यादानं निशीथे चेद्दिवा भोजनमाचरेत् । पुनः स्नात्वा जन्मन्त्रं पिता कन्यां प्रयच्छतु ॥ ८०॥ - कन्यादानका मुहूर्त रात्रिका हो तो दिनमें भोजन-पान कर ले, फिर स्नान कर मंत्रका जाप करे । पश्चात् कन्याका पिता कन्यादान दे ।। ८० ॥ भुक्त्वा समुद्हेत्कन्यां सावित्रीग्रहणं तथा। गान्धर्वासुरयोरेव विधिरेष उदाहृतः॥ ८१ ॥ ... वर भोजन-पान करके कन्याके साथ विवाह करे और सावित्री ( यज्ञोपवीत ) ग्रहण करे । यह भोजन कर विवाह करनेकी विधि गांधर्वविवाह और असुरविवाहमें ही है; अन्य विवाहोंमें नहीं ।। ८१ ॥ कन्याके बान्धव । पिता पितामहो माता पितृव्यो गोत्रिणो गुरुः। मातामहो मातुलो वा कन्याया बान्धवाःक्रमात ॥ ८२ ॥ १ मातुः पितुर्बन्धूनांचाप्रामाण्यात् परस्परानुरागेणमिथः समवायागांधर्वः । २ कन्यायाः प्रसह्यादानाद्राक्षसः । ३ सुप्तप्रमत्तकन्यादानात्पशाचः ।
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy