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________________ त्रैवर्णिकाचार। २९५ narrrrrrrrrr. अतिवाहन-लोभवश मनुष्य अथवा पशुओंको उनकी शक्तिसे अधिक चलाना; अतिसं ग्रह-अमुक धान्योंमें अधिक मुनाफा होगा ऐसा समझ लोभके वशीभूत होकर उनका अधिक संचय करना; विस्मय-जो धान्य या कोई अन्य वस्तु थोड़े मुनाफेसे बेंच दी गई हो अथवा जिसका संग्रह स्वयं न कर सका हो, उस पदार्थको बेंचकर किसी दूसरेने अधिक नफा उठाया हो, उसे देखकर विषाद करना; लोभ-योग्य मुनाफा होनेपर भी और अधिक मुनाफा होनेकी आकांक्षा करना; और अति-भारारोपण-लोभके वशसे शक्तिसे अधिक बोझा लादना; ये पांच परिग्रह-परिमाण व्रतके अतीचार हैं। परिग्रहपरिमाण व्रतीको इनका त्याग करना चाहिए ॥८४॥ छह-अणुव्रत । वधादसत्याञ्चौर्याच्च कामाद्ग्रन्थानिवर्तनम् । पञ्चकाणुनतं रात्रिभुक्तिः षष्ठमणुव्रतम् ॥ ८५ ॥ ऊपर कहे हुए हिंसाविरति, असत्यविरति, चौर्यविरति, अब्रह्मविरति, परिग्रहविरति, ये पांच और छठा रात्रिभोजनत्याग, इस प्रकार छह अणुव्रत होते हैं ॥ ८५ ॥ भावार्थ-रागादि भावों का करना हिंसा है । सभी पापोंमें रागादि भाव होनेके कारण सभी व्रतोंका हिंसाविरतिमें अन्तर्भाव हो जाता है। परंतु केवल हिंसाके त्यागको कह देनेसे मंदबद्धि समझ नहीं सकते। इसलिए उनको समझाने वास्ते झूठ का त्याग करना, चोरीका त्याग करना आदि भेद कर दिये हैं । इसी तरह शायद कोई ऐसा भी समझ लें कि रात्रिभोजनका त्याग अणुव्रतोंमें नहीं है, अतः रात्रिको भोजन करना पाप नहीं है । इससे रात्रि-भोजन-त्याग नामके अणुव्रतको पृथक कहना पड़ा । रात्रि भोजनका हिंसा अन्तर्भाव नहीं हो सकता, यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि यह कह चुके हैं कि रागभावका नाम हिंसा है और रात्रि भोजन करनेमें राग भाव भी अधिक है। अतः जहां जहां राग है वहां वहां हिंसा है। तथा रात्रिमें बाह्य प्राणियोंका घात भी अधिक होता है । अतः बाह्य हिंसा भी जियादा है। इसलिए द्रव्यहिंसा और भावहिंसा नोकी ही अपेक्षासे रात्रिभोजनका हिसामें अतभाव हो जाता है। रात्रिभोजन करना. झठ बोलना, चौरी करना, मैथुन करना, परिग्रह रखना आदि सभी आत्माके परिणामोंके विघातक होनेसे हिंसा ही हैं। केवल शिष्योंको बोध करानेके लिए भेद-रूपसे कहे जाते हैं। अतः लोग जो तर्क करते हैं कि रात्रिभोजनका हिंसामें अंतर्भाव नहीं हो सकता वह बिलकुल अलीक है । जैसे हिंसाका स्वरूप स्पष्ट समझानेके लिए झूठ बोलना, चौरी करना इत्यादि भेद जुदा जुदा कर दिया है। वैसे ही रात्रिभोजनका हिंसामें अंतर्भाव होनेपर भी कोई २ आचार्य शिष्योंका भ्रम दूर करनेके लिए उसका हिंसासे पृथक् कथन करते हैं। - अह्नो मुखेऽवसाने च यो द्वे द्वे घटिके त्यजेत् । निशाभोजनदोषज्ञोऽश्नात्यसौ पुण्यभोजनम् ॥ ८६ ॥ सूर्योदयके बादकी दो घड़ी और सूर्यास्तके पहलेकी दो घड़ी छोड़कर जो भोजन करते हैं-दो घड़ी दिन चढ़ जानेके बादसे लेकर दो घड़ी दिन बाकी रहे तकके समयमें जो भोजन करता है, रात्रिमें भोजन करनेको महापाप जाननेवाला वह पुरुष पुण्यभोजन करता है ॥ ८६ ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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