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________________ २८६ सोमसेनभट्टारकविरचित सम्यक्त्वके तीन भेद । सम्यक्त्वं त्रिविधं ज्ञेयं क्षायिकं चौपशामिकम् । क्षायोपशमिकं चेति उत्तमाधममध्यमम् ॥ ३७ ।। सम्यक्त्व तीन प्रकारका जानना-पहला क्षायिक सम्यक्त्व, दूसरा थायोपशमिक सम्यक्त्व और तीसरा औपशमिक सम्यक्त्व । इनमेंसे क्षायिक सम्यक्त्व उत्तम है । क्षायोपशमिक मध्यम है, और औपशमिक जघन्य है ॥३७ ।।। तीनों सम्यग्दर्शनोंकी उत्पत्ति । मिथ्यासमयमिथ्यात्वसम्यक्प्रकृतयस्त्रयः। आद्य कषायतुर्य च चतुःप्रकृतयः पुनः ॥ ३८ ॥ क्षायिकं च क्षयात्तासां शमनाच्चौपशमिकम् । मिश्रात्तन्मिश्रसम्यक्त्वमिति मोक्षपदायकम् ॥ ३९ ॥ मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, ये तीन; और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, ये चार-इस प्रकार सात कर्मोंके क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है। इन सातोंके उपशमसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है। और इन सातोंके क्षयोपशमसे क्षायोपशामिक सम्यक्त्व होता है। ये तीनों ही सम्यक्त्व मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं ।।३८-३९ ॥. सम्यक्त्वके आठ गुण । उक्तंच-संवेउ णिव्वे जिंदा गरहा च उवसमो भत्ती । वच्छल्लं अणुकंपा अगुणा हुंति सम्मत्त ॥ ४०॥ संवेग, निर्वेग, अपनी निन्दा, अपनी गर्दा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकंपा, ये सम्यक्त्वके आठ गुण हैं। चत्तारि वि खेत्ताइं आउगबंधेण होइ सम्मत्तं । अणुव्वयमहव्वयाई ण हवइ देवाउगं मोत्तुं ॥ ४१ ॥ छसु हिडिमासु पुढविसु जोइसवणभवणसव्वइत्थीसु । वारसमिच्छोवाये सम्माइटे ण होदि उववादो ॥ ४२ ॥ पंचसु थावरवियले असण्णिणिगोयम्मि छक्कुभोगेसु । . सम्मादिठी जीवो उववजदि ण णियमेण ॥ ४३॥ नरकक्षेत्र, तिर्यग्क्षेत्र, मनुष्यक्षेत्र और देवक्षेत्र, इन चारों क्षेत्रसम्बन्धी आयुकर्मके बंध जानेपर सम्यक्त्वकी उत्पत्ति तो हो जाती है, किन्तु देवायुको छोड़ अन्य तीन क्षेत्रसंबंधी आयुका बंध हो जानेपर अणुव्रत-देशविरत नामका पंचम गुणस्थान और महाव्रत-छठे सातवें गुणस्थान नहीं होते। देवायुके बंध जानेपर तो अणुव्रत महाव्रत हो जाते हैं। सम्यग्दृष्टि मरकर रत्नप्रभा नामकी प्रथम नरकभूमिके सिवाय बाकीकी छह पृथ्वियोंमें; ज्योतिषी, व्यंतर और भवनवासी, इन तीन तरहके देवोंमें, और सब स्त्रियोंमें-देवांगना, मनुष्यनियाँ और तिर्यंचनियाँ, इन तीन तरहकी स्त्रियोंमें-इस तरह बारह मिथ्यादृष्टियोंके उत्पन्न होनेके स्थानोंमें उत्पन्न नहीं होता। इन बारह स्थानोंमें नियमसे मिथ्यादृष्टि ही मरकर पैदा होता है । हां, इन स्थानोंमें उत्पन्न होनेके बाद सम्यक्त्वोत्पत्तिकी योग्यता
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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