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________________ त्रैवर्णिकाचार | २७५ जलचर स्थलचर पक्षियों और अपने घरमें रहनेवाले दम्तदोषी चूहे, बिल्ली, कुत्ते आदिका बात करनेवाले मनुष्यकी शुद्धि बारह प्रोषधोपवास, सोलह एकाशन और सोलह स्नान तथा गुरुके कथनानुसार यथाशक्ति गो-दान और पात्र दान करनेसे होती है ॥ १०१-१०२ ॥ गोमहिषीछागीनां वधकर्ता त्रिविंशतिः । प्रोषधाने भक्तानां शतं दानं तु शक्तितः ॥ १०३ ॥ गाय, भैंस और बकरीका वध करनेवाला पुरुष तेईस उपवास, सौ एकाशन और शक्तिके अनु सार दान करे || १०३ ॥ मनुष्यघातिनः प्रोक्ता उपवासाः शतत्रयम् 1 गोदानं पात्रदानं तु तीर्थयात्राः स्वशक्तितः ॥ १०४ ॥ मनुष्यका वध करनेवाले पुरुषकी शुद्धि तीन सौ उपवास करनेसे तथा अपनी शक्तिके अनु खार गो-दान, पात्र दान और तीर्थयात्रा करनेसे होती है ।। १०४ ॥ यस्योपरि मृतो जीवो विषादिभक्षणादिना । क्षुधादिनाऽथवा भृत्ये गृहदाहे नरः पशुः ॥ १०५ ॥ कूपादिखनने वाऽपि स्वकीयेऽत्र तडागके | स्वद्रव्ये द्रव्यगे भृत्ये मार्गे चौरेण मारिते ॥ १०६ ॥ कुडादिपतने चैव रण्डावन्हौ प्रवेशने । जीवघातिमनुष्येण संसर्गे क्रयविक्रये ॥ १०७ ॥ मोषधाः पञ्च गोदानमेकभक्ता द्विपञ्चकाः । संघपूजा दयादानं पुष्पं चैव जपादिकम् ॥ १०८ ॥ यदि कोई मनुष्य अपने निमित्तसे विष आदि खाकर मरगया हो अथवा भूख वगैरहसे काई नौकर मरगया हो, अपने घरमें लाय लगजानेसे मनुष्य अथवा पशुका मरण होगया हो, अपने कुआ बावड़ी आदिके खोदते समय अथवा अपने तालाब आदिमें डूबकर कोई मरगया हो, अपना द्रव्य लेकर जानेवाले नौकरको रास्तेमें चोरोंने मार दिया हो, अपने घर की दीवाल आदिके गिरने से कोई मरगया हो, अपने निमित्त कोई रंडा अग्निमें जल गई हो, कसाई पुरुषसे संसर्ग होगया हो और उसके साथ लेन देन व्यवहार होगया हो, तो पांच उपवास करे, गो-दान दे, बावन एकाशन करे, संघकी पूजा करे, दया दान करे, पुष्प देवे और जप आदि करे ।। १०५-१०८ ॥ स्वतेऽन्यैः स्पर्शितं भाण्डं मृण्मयं चेत्परित्यजेत् । ताम्रारलोह भाण्डं चेच्छुद्धयते शुद्धभस्मना ॥ १०९ ॥ वह्निना कांस्यभाण्डं चेत्काष्ठभाण्डं न शुद्धयति । कांस्य ताम्रं च लोहं चेदन्यभुक्तेऽग्निना वरम् ॥ ११० ॥ अपने रसोई बनाने व पानी भरने आदिके मिट्टी के बर्तन दूसरे विजातीयसे छू जांब, ता उन्हें पृथक् ( अलहदे ) कर देना चाहिये । यदि तांबे, पीतल और लोहे के बर्तन अपनी जातिके स्त्री-पुरुषोंको छोड़कर दूसरी जातिके स्त्री-पुरुषोंसे छू जायँ तो शुद्ध राखसे माँज लेनेसे शुद्ध होजाते हैं । कांसे के बर्तन अनि डालकर माँज लेनेसे शुद्ध होते हैं। लकड़ीके वर्तन किसी
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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