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________________ त्रैवर्णिकाचार। आठवाँ अध्याय। मंगलाचरण। हरिवंशोदयपर्वतसूर्योऽजेयमतापपरिभाव्यः। जयति सदरिष्टनेमिस्त्रिभुवनराजीवकाल्हादी ॥१॥ जो हरिवंशरूपी उदयाचल पर. उदय हुए सूर्य के समान हैं, अजेय कान्तिसे युक्त हैं, तीन भुवनके भव्यजनरूपी कमलोंका विकास करनेवाले हैं, ऐसे श्रीअरिष्टनेमि जिनेश्वर जयवन्त रहें ॥ १ ॥ चन्द्रमभं जिनं वन्दे चन्द्राभं चन्द्रलाञ्छनम् । भव्यकुमुदिनीचन्द्रं लोकालोकविकाशकम् ॥२॥ __ मैं उन चन्द्रप्रभ जिनेश्वरको नमस्कार करता हूँ, जिनके शरीरकी कान्ति चन्द्रमाकी कान्तिक समान पीतवर्ण है, जिनके चन्द्रमाका चिन्ह है, जो भव्यरूपी कमलिनीका विकास करनेको चन्द्रमा सदृश हैं, और जो लोक और अलोकका प्रकाशन करनेवाले हैं ॥ २ ॥ __कथन-प्रतिज्ञा। गर्भाधानादयो भव्यास्त्रित्रिंशत्सुक्रिया मताः । वक्ष्येऽधुना पुराणे तु याः प्रोक्ता गणिभिः पुरा ॥३॥ गर्भाधान आदि जिन उत्तम तैंतीस सुक्रियाओंका प्राचीन महर्षियोंने शास्त्रों में कथन किया है उसको अब मैं यहांपर कहता हूँ ॥ ३ ॥ तैंतीस क्रिया । आधानं प्रीतिः सुप्रीतिधृतिर्मोदः मियोद्भवः । नामकर्म बहिर्यानं निषद्या प्राशन तथा ॥ ४ ॥ व्युष्टिश्च केशवापश्च लिपिसंस्थानसंग्रहः । उपनीतिवेतचयो व्रतावतरणं तथा ॥५॥ विवाहो वर्णलाभश्च कुलचर्या गृहीशिता। प्रशान्तिश्च गृहत्यागो दीक्षाधं जिनरूपसा ॥ ६॥ मृतकस्य च संस्कारो निर्वाणं पिण्डदानकम् । श्राद्धं च सूतकद्वैतं प्रायश्चित्तं तथैव च ॥ ७ ॥ तीर्थयात्रेति कथिता द्वात्रिंशत्संख्यया क्रियाः। त्रयस्त्रिंशच्च धर्मस्य देशनाख्या विशेषतः॥८॥ १ गर्भाधान, २ प्रीति, ३ सुप्रीति, ४ धृति, ५ मोद, ६ प्रियोद्भव, ७ नामकर्म, ८ बहिर्यान, ९ निषद्या, १० अन्नप्राशन, ११ व्युष्टि, १२ केशवाप, १३ लिपि-संग्रह, १४ उपनयन, १५ प्रतपर्या, १६ प्रतावतरण, १७ विवाह, १८ वर्णलाभ, १९ कुलचर्या, २० गृहीशिता, २१ प्रशान्ति,
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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