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________________ सोमसेनभट्टारकविरचित व्यावहारिक कामोंमें यदि किसीके साथ विवाद हो गया हो-झगड़ा पड़ गया हो, तो उसक कारण अपने हृदयमें कलुषता धारण न करे, प्रयोजनके बिना न हँसे, मुखपर बारबार हाथ न फेरे, और न नाक में बारबार उंगली हँसे ॥ १६९ ॥ २२८ ब्रूयात्कार्य दृढीकृत्य वचनं निर्विकारतः । वृथा तृणादि न छेद्यं नांगुल्याद्यैश्व वादनम् ॥ १६२ ॥ किसी भी कार्यका पुख्ता विचार कर उसके विषय में ऐसे वचन कहे जिनके सुननेसे दूसरोंके हृदयमें क्षोभ पैदा न हो । चिना प्रयोजन तृण ( तिनके) आदिको न छेदे । और न व्यर्थ उगलियां चटकावे । अथवा अपने शरीरपर बिना प्रयोजन हाथ उंगली आदिके द्वारा बाजा न बजावे ॥ १६२ ॥ मात्रा पुत्र्या भगिन्या वा नैको रहसि जल्पयेत् । आसने शयने स्थाने याने यत्नपरो भवेत् ॥ १६३॥ माता, पुत्री अथवा बहिनके साथ एकान्तमें अकेला बैठकर बातचीत न करे । बैठने, सोने, खड़े रहने और सवारी आदि पर चढ़नेके समय सावधान रहे ॥ १६३ ॥ जीवधनं स्वयं पश्येत् समीपे कारयेत्कृषिम् । वृद्धान् बालाँस्तथा क्षीणान् बान्धवान्परितोषयेत् ॥ १६४ ॥ गाय, भैंस, बैल, घोड़े आदि जीवित धनकी स्वयं देख-रेख रक्खे । खेती वगैरह अपने ग्राम के पास में ही करावे । बूढ़ों, बालकों, शक्तिहीन दुर्बल और बांधवोंको सन्तुष्ट रक्खे || १६४ || जिनादिप्रतिमाया वा पूज्यस्यापि ध्वजस्य वा । छायां नोल्लङ्घयेन्नीचच्छायां च स्पर्शयेत्तनुम् ।। १६५ ॥ जिनादि प्रतिमाकी या पूज्य जिन मंदिरपर लगी हुई ध्वजाकी छायाका उल्लंघन न करे और नीच पुरुषोंकी छायासे अपने शरीरका स्पर्श न होने दे ॥ १६५ ॥ अदानाक्षेपवैमुख्यमर्थिजनेषु नाचरेत् । अपकारिष्वपि जीवेषु ह्युपकारपरो भवेत् ॥ १६६ ॥ अथ जनोंको कुछ न देना, उनका तिरस्कार करना, उन्हें वापिस लौटा देना आदि कार्य न करे । अपना अपकार करनेवाले - अपना बुरा चाहनेवाले मनुष्योंपर भी उपकार ही करे ॥ १६६ ॥ निद्रा स्त्रीभोगभुक्त्यध्वयानं सन्ध्यासु वर्जयेत् । साधुजनैर्विवादं तु मूखैः प्रीतिं तु नाचरेत् ॥ १६७ ॥ सन्ध्या के समय निद्रा न ले, स्त्री-संभोग न करे, भोजन न करे और न रास्ता चले । सज्जनोंके साथ वाद-विवाद न करे और मूर्खोके साथ प्रीति न करे ॥ १६७ ॥ छात्रागारे नृपागारे शत्रुवेश्यागृहे तथा । क्रीतान्नसदने नीचार्चकागारे न भुञ्जयेत् ।। १६८ ।। शिष्य, राजा, शत्रु, तथा वेश्या के घरपर भोजन न करे । तथा ढाबे, होटल आदिमें, नीच पुरुषोंके यहां, और पुजारियोंके घर भोजन न करे ॥ १६८ ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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