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________________ सोमसेनभट्टारकविरचित जीवन त्याग करना चाहिए । जो इनमेंसे एकको भी मारनेके लिए प्रवृत्त होता है वह अनन्त जीवोंका संहार करता है ॥ २९० ॥ २०० नालीसूरणकालिङ्गद्रोणपुष्पादि वर्जयेत् । आजन्म तदभुजामल्पफलं घातश्च भूयसाम् ॥ २११ ॥ कमलकी डंडी, सूरण कंद, तरबूज ( कलिङ्गड़ ), द्रोणपुष्प, मूली, अदरख, नीमके फूल, केतकी फूल आदि वनस्पतिका यावज्जीवन त्याग करना चाहिए | क्योंकि इनके खानेवालोंको फल तो थोड़ा होता है और उनके खानेसे बहुतसे जीवोंका घात होता है | ॥ २१९ ॥ आमगोरससम्पृक्तं द्विदलं प्रायशो नवम् । वर्षास्वदलितं चात्र पत्त्रशाकं च वर्जयेत् ॥ २१२ ॥ जिस धान्यके बराबर २ दो हिस्से हो सकते हों ऐसे मूंग, उड़द, चना आदिको द्विदल कहते हैं । अग्निसे पकाये गए कच्चे दूध, कच्चे दही और कच्चे दूध के जमाये हुए दहीकी छाछ में मिले हुए मूंग, उड़द, चना आदि द्विदलको न खाना चाहिए; क्योंकि उनमें अनन्तजीव पड़ जाते हैं । ऐसा आगममें सुना जाता है । इसी तरह प्रायः पुराने द्विदलको भी न खावे । प्रायः शब्दके कहने का तात्पर्य यह है कि कुलिथ आदि द्विदल अन्न यद्यपि अधिक दिन रक्खे रहने के कारण काले पड़ गये हों, परंतु उनमें सम्मूर्च्छन जीव न पड़े हों; तो उनके खाने में कोई दोष नहीं है । तथा बरसात के दिनों में चक्कीमें बिना दले- जिनकी दलकर दाल न बनाई गई हो ऐसे द्विदल धान्यको भी न खावे । क्योंकि आयुर्वेद में लिखा है कि बरसात के दिनोंमें इन धान्यों में अंकुरे पैदा हो जाते हैं, और सम्मूर्च्छन त्रसजीव भी उत्पन्न हो जाते हैं। इससे यह भी अभिप्राय निकलता है कि बरसात में इन धान्योंमेंसे जिनमें अंकुर न पड़े हों उन्हें भी न खाना चाहिये, और बरसात के दिनों में पत्तेवाला शाक भी नहीं खाना चाहिये; क्योंकि बरसातमें ऐसे शाकोंमें त्रस स्थावर जीव बहुत से मिले रहते हैं । इनके खानेसे फल भी बहुत थोड़ा होता है ॥ २१२ ॥ भोजन करते समय मौन - विधि | रक्षार्थमभिमानस्य ज्ञानस्य विनयो भवेत् । तस्मान्मौनेन भोक्तव्यं नार्थ्यं हस्तादिसञ्ज्ञया ॥ २१३ ॥ रूप अभिमान की रक्षा होती है और श्रुतज्ञानका करना चाहिए। हाथ आदिके इशारे से भी किसी मौन धारण करनेसे, मैं भोजन करते समय कुछ भी न मांगूगा - इस प्रकारके अयाचकत्व-तविनय होता है । इसलिए मौन धारणकर भोजन भोज्य वस्तुकी अभ्यर्थना न करे ॥ २१३ ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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