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________________ त्रैवर्णिकाचार | तीर्थान्ते जिनशीतलस्य सुतरामाविश्वकार स्वयं लुब्धो वस्तुषु भूतिशर्मतनयोऽसौ मुण्डशालायनः ॥ १२३ ॥ कन्या, हाथी, सोना, घोडा, गाय, दासी, तिल, रथ, भूमि और मकान ये दरिद्रों को इष्ट दशप्रकारके दान हैं । जिनका दशवें शीतल नाथ तीर्थकरके तीर्थके अन्त समयमें तरह तरहकी वस्तुओं में लोलुप हुए भूतिशर्मा के पुत्र मुंडशालायनने स्वयं आविष्कार किया था । भावार्थये दान वीतरागकथित नहीं हैं इनका प्रवर्तक एक स्वार्थी लुब्धक पुरुष है । इस लिए ये दान निन्य हैं । यदि ये ही दान आगे लिखे अभिप्रायोंसे किये जांय तो न निन्द्यही हैं और न पापके कारणही हैं ॥ १२३ ॥ विचार्य युक्तितो देयं दानं क्षेत्रादि सम्भवम् । योग्यायोग्यं सुपात्राय जघन्याय महात्मभिः ।। १२४ ॥ १८१ श्रावकोंको योग्य-अयोग्यका युक्तिपूर्वक विचार कर जघन्य पात्रके लिए भूमि आदि दश दान अवश्य देने चाहिएं ॥ १२४ ॥ औरों को क्यों न दे ऐसी शंका होने पर कहते हैं— मध्यमोत्तमयोर्लोके पात्रयोर्न प्रयोजनम् । क्षेत्रादिना ततस्ताभ्यां देयं पूर्वं चतुर्विधम् ॥ १२५ ॥ मध्यम पात्रों और उत्तम पात्रोंको लोकसे कुछ प्रयोजन नहीं है । इस लिए उनको इन दशदानोंके अतिरिक्त पूर्वोक्त चार प्रकारके आहार दान, औषध दान, शास्त्र दान और अभय दान देवे ॥ १२५ ॥ चैत्यालयं जिनेंद्रस्य निर्माप्य प्रतिमां तथा । प्रतिष्ठां कारयेद्धीमान् हैमैः संघं तु तर्पयेत् ॥ १२६ ॥ पूजायै तस्य सत्क्षेत्रग्रामादिकं प्रदीयते । अभिषेकाय गोदानं कीर्तितं मुनिभिस्तथा ॥ १२७ ॥ जिन भगवानका चैत्यालय बनवाकर तथा प्रतिमा बनवाकर उनकी प्रतिष्ठा करावे और सुवर्णसे सारे जैन संघको तृप्त करे। जिन भगवानकी पूजाके लिए अच्छी उपजाऊ जमीन, ग्राम, घर आदि देवे जिससे कि उनकी उपजसे निर्विघ्न जिन पूजाका कार्य चलता रहे । तथा भगवानके अभिषेकके लिए गौका दान दे जिसके शुद्ध प्रासुक दूधसे भगवान्का दुग्धाभिषेक हुआ करे । ऐसा आचार्यों का मत है ॥ १२६ ॥ १२७ ॥ शुद्धश्रावकपुत्राय धर्मिष्ठाय दरिद्रिणे । कन्यादानं प्रदातव्यं धर्मसंस्थितिहेतवे ।। १२८ ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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