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________________ -. .त्रैवर्णिकाचार। १६७ सैषा घटी स दिवसः स च मास एव प्रातस्तथापि वरपक्ष इहास्तु सोऽपि । यत्र त्वदीयचरणाम्बुजदर्शनं स्यात् साफल्यमेव वदतीह मुखारविन्दम् ।। ५८ ॥ हे जिन ! जिस समय आपके चरणकमलोंका दर्शन होवे वही घड़ी, वही दिन, वही महीना वही प्रातःकालका समय और वही पखवाड़ा इस जगत मै निरन्तर बना रहे क्योंकि आपका यह .मुखकमल मेरे जन्मकी सफलताको कह रहा है ॥५८॥ . नेत्रे ते सफले मुखाम्बुजमहो याभ्यां सदा दृश्यते । जिह्वा सा सफला यया गुणतया त्वदर्शनं गीयते । तौ पादौ सफलौ च यौ कलयतस्त्वदर्शनायोद्यतं तञ्चेतः सफलं गुणास्तव विभो ! यञ्चिन्तयत्यादरात् ॥ ५९॥ हे देव ! नेत्र वेही सफल हैं जिनसे हमेशह आपका मुखकमल देखा जाता है । जिव्हा वही सफल है जिससे आपका यशोगान किया जाता है । पैर वेही सफल हैं जो आपके दर्शनोंके लिए उद्यत रहते हैं और चित्त भी वही सफल है जो बड़े चावसे आपके गुणोंका चिन्तवन करता है ॥ ५९॥ दर्शनं तव सुखैककारणं दुःखहारि यशसेऽपि गीयते । सेवया जिनपतेरहर्निशं जायतां शिवमहो तनूमताम् ॥६०॥ हे विभो ! आपका दर्शन अनिर्वचनीय सुखका कारण है । दुःखका हरण करनेवाला है और दिग्दिगान्तरोंमें कीर्ति फैलानेवाला है। इसलिए हे जिन ! रात-दिन आपकी सेवा करनेसे प्राणियोंका कल्याण होवे ॥६०॥ इत्यादिस्तवनैः स्तुत्वा जिनदेवं महेश्वरम् । भवेत्सन्तुष्टचित्तोऽसावुपात्तपुण्यराशिकः ॥६१॥ इत्यादि स्तवनों द्वारा परमात्मा जिन देवकी स्तुति कर जिसने भारी पुण्यका उपार्जन किया है ऐसा यह भव्य पुरुष परमसन्तोष धारण करे ॥ ६१॥ द्वारपालसे अनुज्ञा लेनेका मंत्र । ॐ ही अर्ह द्वारपालाननुज्ञापयामि स्वाहा । यह द्वारपालसे प्रार्थना करनेका मंत्र है, इसे पढ़ कर द्वारपालसे आज्ञा लेवे।
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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