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________________ त्रैवर्णिकाचार । है, छत्र चामर आदि आठ प्रातिहार्योंसे युक्त हो, जिसके शारीरिक अवयव परिपूर्ण और शुभ हों, देखनेमें ऐसा हो कि जो मनुष्योंके भावोंको अपनी ओर खेंचती हो अर्थात् वीतरागता को लिए हुए हो ॥ २५॥ २६ ॥ २७ ॥ २८ ॥ २९॥ प्रातिहाविना शुद्धं सिद्धबिम्बमपीदृशम् । सूरीणां पाठकानां च साधूनां च यथागमम् ॥ ३० ॥ ... प्रातिहार्य को छोड़ सिद्ध-बिम्ब भी ऐसाही होना चाहिए । तथा आचार्य उपाध्याय और साधुओं की प्रतिमा भी आगमके अनुसार ऐसीही होनी चाहिए ॥३०॥ वामे च यक्षीं बिभ्राणं दक्षिणे यक्षमुत्तमम् । नवग्रहानधोभागे मध्ये च क्षेत्रपालकम् ॥ ३१ ॥ यक्षाणां देवतानां च सर्वालङ्कारभूषितम् । स्ववाहनायुधोपेतं कुर्यात्सर्वाङ्गसुन्दरम् ॥ ३२ ॥ उस अर्हन्तकी प्रतिमाके बाई ओर यक्षी हो, दाहिनी ओर यक्ष हो, प्रतिमाके नीचले भागमें नवग्रह हों, पीठके मध्यमें क्षेत्रपाल हो। तथा यक्षों और यक्षियों की प्रतिमा सम्पूर्ण अलंकारोंसे सजी हुई, अपने अपने वाहन और आयुधोसे युक्त सर्वांग सुन्दर बनावे ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ लक्षणैरपि संयुक्तं विम्ब दृष्टिविवर्जितम् । न शोभते यतस्तस्मात्कुदृष्टिप्रकाशनम् ॥ ३३ ॥ यदि प्रतिमा उक्त लक्षणोंसे युक्त हो परन्तु उसकी दृष्टि-नजर ठीक ठीक न हो तो वह देखने में सुन्दर नहीं लगती है, इस लिए प्रतिमा की दृष्टि स्पष्ट बनवाना चाहिए ॥ ३३ ॥ प्रतिमाकी दृष्टि व हीनाधिक अंग-उपांगका फल । अर्थनाशं विराधं च तिर्यग्दृष्टेभयं तदा । अधस्तात्पुत्रनाशं च भार्यामरणमूर्ध्वदृक् ॥३४॥ शोकमुद्वेगसन्तापं सदा कुर्याद्धनक्षयम् । शान्ता सौभाग्यपुत्रार्थ शान्तिवृद्धिप्रदानहक् ॥ ३५ ॥ सदोषा च न कर्तव्या यतः स्यादशुभावहा । कुर्याद्रौद्री प्रभो शं कृशाङ्गी द्रव्यसंक्षयम् ॥ ३६ ॥ संक्षिप्ताङ्गी क्षयं कुर्याचिपिटा दुःखदायिनी । .. विनेत्रा नेत्रविध्वंसी हीनवक्त्रा त्वभोगिनी ॥ ३७॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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