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वार्णकाचार।..
दिखावे । इसके बाद पांद्यविधि कर जलसे जिनदेवको आचमन करावे-प्रतिमाके मुखपर जलके छींटे छोड़े । पश्चात् आरती उतार कर जलादि अष्ट द्रव्यसे पूजन करे । भस्म, ओदन, दर्भकी सलाई, गोमय और पिंड-पंचवर्ण भात-इत्यादि द्रव्योंसे आरती उतारे ॥ ९१ ॥ ९३ ॥
चतुष्कोणेषु कुम्भांश्च मालाचन्दनचर्चितान् ।
फलपल्लववक्तृस्थान्ससूत्रान्स्थापयेत्क्रमात् ॥ ९४॥ उस सिंहासनके चारों कोनोंपर क्रमसे जलसे भरे हुए कलश रक्खे। उन्हें पुष्पमाला और चन्दनसे सुशोभित करे तथा उनके मुख पर फल और पत्ते रक्खे । और गलेमें सूत लपेटे ॥ ९४ ॥
अध्यः सम्पूज्य कुम्भांस्तांस्ततो दिक्पालकान्दश ।
अर्घ्यपाद्यादिभिर्यज्ञभागवल्यादिभिर्यजेत् ॥ ९५॥ ।' पश्चात् उन कलशोंको अर्घ देकर दश दिक्पालोंकी अर्ध्य, पाय, यज्ञभाग, बलि आदिसे पूजा करे ॥ ९५॥
कलशस्थापन । ततः पुष्पाञ्जलिं दत्वा वाद्यनिर्घोषनिर्भरैः।
उद्धृत्य कलशान्पूर्वांस्तजलैः स्नापयेजिनम् ॥ ९६ ।। पश्चात् पुष्पांजलि क्षेपणकर गाजेबाजेके साथ साथ उन कलशोंमेंसे चार कलश हाथमें उठाकर उनके जलसे जिन भगवानका अभिषेक करे ॥ ९६ ॥
पंचामृताभिषेक। इक्षुरसभृतैः कुम्भैस्तथा घृतघटैः परैः।
दुग्धकुम्भैस्तथा दनः कुम्भैः संस्नापयेत्पुनः ॥ ९७॥ पश्चात् इक्षुरस, घृत, दूध, दही इनसे भरे हुए कलशोंसे क्रमसे अभिषेक करे ॥ ९७ ॥
कोणकलशाभिषेक । सर्वौषधिरसैश्वापि चोद्धृत्य श्रीजिनेश्वरम् ।
कोणस्थैः कलशैर्देवं युत्क्या सस्नापयेत्ततः ॥ ९८॥ पश्चात् सर्वौषधि रससे भरे हुए कलशसे जिनदेवका अभिषेक करे। इसके बाद चारों कोनोंपर स्थित उन चार जलसे भरे कलशोंसे विधिपूर्वक पुनः अभिषेक करे ॥ ९८॥
१ कमलकी कली, दूब, अक्षत और सफेद राई इसको मिलाकर अर्पण करनेको पाद्य कहते हैं। .....