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सोमसेनमारकासवित
मानस्तम्भ तथा छवं कैश्यानां तु सुखप्रदम् ।
शूद्राणां तु भवेच्चक्रमितरेषां त्रिदण्डकम् ॥ ७७ ॥ अर्धचन्द्र और छयाकार ये दो तरहके तिलक क्षत्रिय लगाते हैं। स्तम्भाकार, सिंहासनाकार और छत्राकार ये तीन तरहके तिलक ब्राह्मणोंको शुभ देनेवाले होते हैं । मानस्तंभ और छत्राकार ये दो तिलक वैश्योंको सुखप्रद हैं । तथा शूद्रोंके लिए चक्राकार और अन्य लोगोंके लिए त्रिशलाकार तिलक सुखप्रद होते हैं । ७६ ॥ ७७ ॥
क्षत्रियवैश्यविप्राणां योषितां तिलक स्मृतं ।
अर्धचन्द्रस्तथा छत्रं तिर्यग्रेखाचतुष्टयम् ॥ ७८ ॥ ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्योंकी स्त्रियाँ अर्धचन्द्राकार तथा आड़ी चार रेखारूप छत्राकार तिलक लगावें ॥ ७८॥
योषितां सर्वशूद्राणां स्तम्भं पोठं त्रिदण्डकम् ।
चन्दनकुङ्कुमश्रेष्ठद्रव्यस्त्रिवर्णके स्मृतम् ॥ ७९ ॥ सब ही शूद्रोंकी स्त्रियाँ स्वम्भाकार, सिंहासनाकार और त्रिशलाकार तिलक लगावें । तथा तीनों वर्णके स्त्री-पुरुष चन्दन, केशर या अन्य श्रेष्ठ सुगन्धित द्रव्यका तिलक लगावे ॥ ७९ ॥
निम्बकाष्ठैर्मदा वाऽथ शूद्राणां शुभ्रभस्मना ।
सिन्दूरैवो निशाचूर्णैः सर्वासां योषितां वरम् ॥ ८०॥ नींबकी लकड़ी, मृत्तिका अथवा सफेद राखसे शूद्र तिलक करे । सभी जातिको त्रियाँ सिन्दूर अथवा हल्दीका तिलक करे ॥ ८० ॥
अक्षतधारण। सुगन्धलेपनस्योर्ध्व मध्येभालं धरेद्गृही।
अङ्गुलाग्रमिते देशे जिनपादाचिंताक्षतान् ॥ ८१ ॥ गिरिस्ती लोग सुगंध लेपनके ऊपर ललाटके मध्य भागमें उँगलीके टोए प्रमाण जमहमें जिनेन्द्र देवके चरणकमलोंकी पूजा किये हुए अक्षतोंको रक्खें-लगावें ॥ ८१ ॥
गन्धलेपनकी महिमा। ब्रह्मनो वाऽथ गोनो वा तस्करः सर्वपापकृत् । .. जिनांघ्रिगन्धसम्पर्कान्मुक्तो भवति तत्क्षणात् ॥ ८२ ।।