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________________ - त्रैवर्णिकाचार।.. संसारके सभी लोगोंके तापको नष्ट करनेवाला है और तमाम संसारको अच्छे अच्छे फलोंसे सफल करनेवाला है ॥ ३५॥ दर्शनं जिनसुकामगोरलं कामितं भवति यत्प्रसादतः। दोग्धि दुग्धमपि वित्तकाम्यया शुद्धमेव मन इत्युदाहृतम् ॥ ३६ ॥ हे जिनेन्द्र रूपी कामधेनु ! यह आपका दर्शन पूर्ण समर्थशाली है जिसके प्रसादसे सभी तरहके मनचाहे पदार्थोंकी प्राप्ति होती है। यह दर्शनरूपी कामधेनु ऐसी है कि भव्यपुरुष द्रव्यकी इच्छासे जिसका दूध दोहते हैं इसमें शुद्ध मन ही कारण है अर्थात् उनकी द्रव्यकी तृष्णा दूर हो जाती है ॥ ३६॥ दर्शनं जिनपयोनिधे शं सौख्यमौक्तिकसमूहदायकम् । सद्धनं गुणगभीरमुत्तमं ज्ञानवारिविपुलप्रवाहकम् ॥ ३७ ॥ हे जिनसमुद्र ! यह आपका दर्शन सुख-मोतियोंके समूहको देनेवाला है और ज्ञान-जलको बड़ी भारी वृष्टि करनेवाला सगुणोंसे भरापूरा उत्तम मेघ है ॥ ३७॥ अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य, देव त्वदीयचरणाम्बुजवीक्षणेन । अद्य त्रिलोकतिलक प्रतिभासते मे, संसारवारिधिरयं चुलकप्रमाणः ॥ ३८॥ . हे देव ! आपके चरणकमलोंके देखनेसे आज मेरे ये दोनों नेत्र सफल हुए हैं। हे तीन लोकके तिलक ! यह संसार-समुद्र आज मुझे पानीके चुल्लु बराबर देख पड़ रहा है ॥ ३८॥ किसलायतमनल्पं त्वद्विलोकाभिलाषात्, कुसुमितमतिसान्द्रं त्वत्समीपप्रयाणात् । मम फलितममन्दं त्वन्मुखेन्दोरिदानी, नयनपथमवाप्ताद्देव पुण्यद्रुमेण ॥ ३९ ॥ हे देव ! तुम्हारे देखनेकी इच्छा करते ही इस मेरे पुण्य-वृक्षमें बहुतसी नई कोंपलें फूट पड़ती हैं । तुम्हारे समीपमें जाते ही इसमें फूलोंके गुच्छेके गुच्छे छा जाते हैं । और तुम्हारे मुख-कमल पर नजर पड़ते ही यह पुण्य-वृक्ष फलोंसे लद जाता है ॥ ३९॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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