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________________ ( ३ ) मूरखान मूढांश्च गर्विष्ठान् जिनधर्मविवर्जितान् । कुवादिवादिनोऽत्यर्थे त्यजेन्मौनपरायणः ॥ ग्रन्थ कर्ताने अनक स्थानोंमें देव, गुरु, शास्त्र, चैत्यालय आदि की भक्तिपूर्ण स्तुतिएं की हैं । इससे उनकी जैनधर्म पर असाधारण भक्ति प्रकट होती है। जैनोंका उनके हृदयमें बे हद्द आदर था । यथा रोगिणो दुःखितान् जीवान् जैनधर्मसमाश्रितान् । संभाष्य वचनैर्मृष्टेः समाधानं समाचरेत् ॥ जब कि ग्रन्थकर्ता अन्यधर्मों से अप्रीति और जैनधर्मसे प्रीति दिखला रहे हैं तब मालूम नहीं पड़ता कि कौनसे स्वार्थवश उन पर उक्त लांछन लगाया जाता है। इससे तो यही साबित होता कि यह ग्रन्थ उन लोगोंकी स्वार्थवासनाओंमें रोड़े अटकाता है अतः अपना मार्ग साफ करने के लिए पहले वे इन छलों द्वारा अपना मार्ग साफ करना चाहते हैं । हमें तो ग्रन्थ परिशीलन से यही मालूम हुआ कि ग्रन्थकर्ताकी जैन धर्मपर असीम भक्ति थी, अजैन विषयोंसे वे परहेज करते थे। लोग खामुखां अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए उन पर अवर्गवाद लगाते हैं । ग्रन्थकी प्रमाणता । ग्रन्थी प्रमाणत में भी हमें कुछ संदेह नहीं होता । प्रतिपादित विषय जैनमतके न हों और उनसे विपरीत शिक्षा मिलती हो तो प्रमाणता में संदेह हो सकता है । ग्रन्थकी मूल भित्ति आदि पुराण परसे खड़ी हुई है । जिनका आधार उन्होंने लिया है उनके ग्रन्थोंमें भी वे विषय पाये जाते हैं। किंबहुना इस ग्रन्थके विषय ऋषिप्रणीत आगममें कहीं संक्षेपसे और कहीं विस्तार से पाये जाते हैं । अत एव हमें तो इस ग्रन्थमें न अप्रमाणता ही प्रतीत होती है और न आगम विरुद्धता ही । परंतु जो लोग वर्णीचार जैसे विषयों से अनभिज्ञ हैं, उनके पालनमें असमर्थ हैं, उनकी परंपराका जिनमें लेशभी नहीं रहा है वे इसके विषयोंको देख कर एक वार अवश्य चौंकेंगे । जो वर्णाचारको निरा ढकौसला समझते हैं वे अवश्य इसे धूर्त और ढौंगी प्रणीत कहेंगे। जिनके मगज में भट्टारक और त्रिवणीचार नाम ही शल्यवत् चुभते हैं वे अवश्य ही इसे अप्रमाणता और आगमविरुद्धताकी और खसीटेंगे । इसमें जरा भी संदेह नहीं। पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, महापुराण, यशस्तिलकचंपू जैसे पुराण और चरित ग्रन्थोंको, विद्यानुवाद, विद्यानुशासन, भैरवपद्मावतीकल्प, ज्वालामलिनीकल्प जैसे मंत्रशास्त्रोंको, इन्द्रनंदिप्रतिष्ठापाठ, वसुनंदिप्रतिष्ठापाठ, आशाधरप्रतिष्ठापाठ, नेमिचंद्रप्रतिष्ठापाठ, अकलंकप्रतिष्ठापाठ जैसे पूजा शास्त्रोंको, रत्नकरंडक, मूलाचार, आचारसार धर्मामृत जैसे आचार ग्रन्थों को, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, त्रिलोकसार जैसे लोकव्यवस्थापक शास्त्रोंको एवं एक एक कर जैनमतके सभी विषयोंको अप्रमाण और अलीक (झूठा ) मानते हैं वे इसग्रन्थको अप्रमाण और ढौंगी प्रणीत मानें इसमें आश्चर्य ही क्या है । जब कि जैनधर्म जैसे कल्याणकारी धर्मकोभी झूठा कहनेवाले अजैन ही नहीं जैननामधारीभी संसारमें मौजूद हैं तब इस सामान्य ग्रन्थ की अवहे - लना करनेवाले इस संसार में न पाये जांय यह हो नहीं सकता ? १-२ इनका अर्थ पृष्ट १७४ में श्लोकनं ९१-९२ में देखो ।
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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