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________________ त्रैमर्णिकाचार । ह्रस्व, दीर्घ और प्लुल शब्दके अक्षरोंसे बने हुए मंत्रका वाणी द्वारा स्पष्ट उच्चारण करना उसे बाचिक जप कहते हैं ॥ ११६ ॥ शनैरुच्चारयेन्मन्त्रं मन्दमोष्ठौ प्रचालयेत् । अपरैरश्रुतः किञ्चिस्स उपांशुर्जपः स्मृतः ॥ ११७ ॥ मंत्रके अक्षरोंका बहुत ही धीरे धीरे उच्चारण करना, मन्द मन्द ओठोंको चलाना और जिसे दूसरे लोग जरा भी न सुन सकें उसे उपांशु जप कहते हैं ॥ ११७ ॥ विधाय चाक्षश्रेण्या वर्णाद्वर्ण पदात्पदम् । शब्दार्थचिन्तनं कथ्यते मानसो जपः ॥ ११८ ॥ भूयः वर्ण से वर्णको और पदसे पदको -- जिस तरहका मंत्रके अक्षरों वा शब्दोंका क्रम है उसी क्रमसे-हृदय में धारण कर शब्द - अर्थका बार बार चिन्तवन करना मानस जप कहा जाता है ।। ११८ ॥ १० मानसः सिद्धिकाम्यानां पुत्रकाम्य उपांशुकः । वाचिको धनलाभाग प्रशस्तो जप ईरितः ।। ११९ ॥ सिद्धिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंके लिए मानस जप, पुत्र चाहनेवाले पुरुषोंके लिए उपांशु जप और धन कमानेकी इच्छा रखनेवालोंके लिए वाचिक जप शुभ माना गया है ॥ ११९ ॥ वाचिकस्त्वेक एव स्यादुपांशुः शत उच्यते । सहस्रं मानसः प्रोक्तो जिनसेनादिसूरिभिः ।। १२० ॥ एक बार किया हुआ वाचिक जप एक ही बारके बराबर होता है, उपांशु जप एक बार भी किया हुआ सौ बार किये हुएके बराबर होता है और मानसिक जप हजार बार किये हुएके बराबर होता है । ऐसा बड़े बड़े जिनसेन आदि प्रखर महर्षियोंका अभिमत है ॥ १२० ॥ ब्रह्मचारी गृहस्थश्च शतमष्टोत्तरं जपेत् । वानप्रस्थश्च भिक्षुश्च सहस्रादधिकं जपेत् ॥ १२१ ॥ ब्रह्मचारी और गृहस्थ एक सौ आठ बार जप करें। तथा वानप्रस्थ और यति एक हजार आठ बार जप करें १२१ ॥ अनध्यायेऽष्टोत्तरं स्याच्छातमन्यत्र चार्द्धकम् । पूजायां दशकं ज्ञेयं यथाशक्ति समाचरेत् ।। १२२ ।।
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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