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________________ (७२७) लज्जाइगारवेणं, बहुसुअमएण वावि दुच्चरिअं। जो न कहेइ गुरूणं, न हु सो आराहओ भणिओ ॥ १० ॥ अर्थः - जो पुरुष शर्म आदिसे, रसादिगारवमें लिपटा रहनेसे अर्थात् तपस्या न करने की इच्छाआदिसे अथवा मैं बहुश्रुतहूं ऐसे अहंकारसे, अपमानके भयसे अथवा आलोयणा बहुत आवेगी इस भयसे गुरुके पास अपने दोष कह कर आलोयणा न करे वह कदापि आराधक नहीं कहलाता।। संवेगपरं चित्तं, काऊणं तेहिं तेहिं सुत्तेहिं । ___ सल्लाणुद्धरणविवा- गदंसगाईहिं आलोए ॥ ११ ॥ अर्थः-संवेग उत्पन्न करनेवाले आगमबचनोंको सूत्रोंका विचार करके तथा शल्यका उद्धार न करनेके दुष्परिणाम कहनेवाले सूत्र ऊपर ध्यान देकर अपना चित्त संवेग युक्त करना और आलोयणा लेना। अब आलोयणा लेनेवालेके दश दोषोंका वर्णन करते हैं:आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता जं दिढं बायरं व सुहुमं बा । छन्नं सद्दाउलयं, बहुजण अव्वत्त तस्सेवी ॥ १२ ॥ अर्थः- १ गुरु थोडी आलोयणा देंगे, इस विचारसे उनको वैयावच्च आदिसे प्रसन्नकर पश्चात् आलोयणा लेना, २ गुरु थोडी तथा सरल आलोयणा देनेवाले हैं, ऐसी १ के आलोयणा करना, ३ अपने जिन दोषोंको दूसरोंने देखे हो उन्हींकी आलोयण करना और अन्य गुप्त दोषोंकी न करना
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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