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________________ (७०५) करी, और जगत्में सूर्यके समान पुत्रकी प्राप्ति होनेकी उसे बधाई दी. उसी दिन धान्यसे परिपूर्ण भरे हुए बहुतसे सार्थ ( टांडे ) चारों तरफसे आये और उससे वहां सुभिक्ष होगया. उन भगवान्के सम्भव ( जन्म ) में सर्व धान्यका सम्भव हुआ, इसी कारणसे मातापिताने उनका नाम 'सम्भव' रखा. देवगिरिमें जगसिंह नामक श्रेष्ठि अपने ही समान सुखी किये हुए तीनसौ साठ मुनीमोंके द्वारा नित्य बहत्तर हजार टंक व्यय करके एक एक साधर्मिवात्सल्य कराता था. इस प्रकार प्रतिवर्ष उसके तीनसौ साठ साधर्मिवात्सल्य होते थे. थरादमें श्रीमाल आभू नामक संघपतिने तीनसौ साठ साधर्मिभाइयों को अपने समान किये. कहा है कि--उस सुवर्णपर्वत ( मेरू ) तथा चांदांके पर्वत (वैताट्य ) का क्या उपयोग ? कारण कि, जिसके आश्रित वृक्ष काष्ठके काष्ठ ही रहते हैं, सुवर्णचांदीके नहीं होते. एक मलय पर्वत ही को हम बहुत मान देते हैं; कारण कि उसके आश्रित आम, नीम और कुटज वृक्ष भी चन्दनमय होजाते हैं. सारंग नामक श्रेष्ठीने पंचपरमेष्ठिमंत्रका पाठ करनेवाले लोगोंको प्रवाहसे प्रत्येकको सुवर्णटंक दिये. एक चारण "बोल" ऐसा बार बार कहनेसे नौवार नवकार बोला, तब उसने उसे नौ सुवर्णमुद्राएं दीं. इसी प्रकार प्रतिवर्ष जघन्यसे एक यात्रा भी करना. यात्राएं तीन प्रकारकी हैं. यथाः--१ अट्ठाई यात्रा, २ रथयात्रा
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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