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________________ १० : पंचलिंगीप्रकरणम् कसाया । ववहारहेउ लिंगं बारस तुरिए __ गुणम्मि उ आइल्लाण विसेसो न दुट्ठभासाइगम्मो उ ।। ४ ।। व्यवहारहेतुः लिंगं द्वादष तुर्ये गुणे तु कषायाः। आदिमानां विशेषः न दुष्टभाषादिगम्यस्तु ।। ४ ।। व्यवहारहेतु उपशम-लिंग है, होते केवल बारह कषाय ही चतुर्थ गुण में । आदिमान् (अननतानुबन्धी) विशेष नहीं, प्रवृत्ति नहीं दुष्टभाषादि में।।४।। ४. मिथ्याभिनिवेश का उपशम सम्यक्त्व का व्यावहारिक लिंग है अर्थात् इसका प्रयोजन केवल व्यवहार के लिये है, जो बाह्य साधारण लक्षणों से सूचित होता है। चतुर्थ गुणस्थान में केवल बारह कषायों (संज्वलन क्रोध, मान, माया व लोभ; अप्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया व लोभ तथा प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया व लोभ) की ही विद्यमानता होती है। प्रारम्भ के चार - अनन्तानुबन्धी - कषाय (क्रोध, मान, माया व लोभ) अविद्यमान होते हैं। यह विशेषता दुष्टभावों की कारणभूत नहीं होने से इस गुणस्थान में स्थित व्यक्ति की दुष्टभाषादि में प्रवृत्ति नहीं होती है। - यहाँ कषाय को सम्यक्त्व लिंग संबद्ध मानने में दो अनिष्ट-प्रसंग आते हैं - १. कषाय के सोलह भेदों में अनंतानुबंधी कषाय भी हैं जो इष्ट नहीं है, २. अनंतानुबंधी कषायों के दुष्टभावों के कारणभूत होने से दुष्टभाषाप्रयोग भी होगा। अतः कषाय को नहीं अपितु मिथ्याभिनिवेश के उपशम को ही सम्यक्त्वलिंग मानना उचित है।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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