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________________ आमुख : XLV विक्रमी ग्यारहवीं शताब्दि के मध्य में कहीं होनी चाहिये। २. उनकी उपलब्ध कृतियों का काल विक्रमी ग्यारहवीं सदी के अंतिम चतुर्थांश से बारहवीं सदी का प्रथमांश है।' जिनेश्वरसूरि का कृतित्त्व : जिनेश्वरसूरि ने कथात्मक, विवरणात्मक एवं प्रमाण विषयक अनेक ग्रंथों की रचना की है। उनके द्वारा रचित निम्न ग्रंथ उपलब्ध हैं: - १. आचार्य हरिभद्रसूरि के 'अष्टकप्रकरण' की ३३७४ श्लोकप्रमाण विस्तृत टीका। २. 'चैत्यवंदन विवरण' पर १००० श्लोकप्रमाण टीका। ३. गृहस्थ के आचार-व्यवहार पर 'षट्स्थानकप्रकरण' ग्रंथ की रचना। ४. सम्यक्त्व के पाँच लिंगों का विवेचक ‘पंचलिंगीप्रकरण' नामक आलोच्य ग्रंथ। . ५. 'प्रमाणलक्ष्य या प्रमाणलक्षण' नामक ग्रंथ जिसमें जैनदर्शनसम्मत तत्त्व की विस्तार से चर्चा की गई है। ६. 'कथाकोषप्रकरणवृत्ति' इनके अतिरिक्त जिनेश्वरसूरि की एक अनुपलब्ध १८००० श्लोक प्रमाण कृति 'निर्वाणलीलावती कथा' प्राकृत महाकथा थी जो उपन्यास अथवा कथा-कोष-प्रकरण के रूप में थी, उसका केवल संक्षिप्त संस्कृत रूपांतरण उपलब्ध है। जिनेश्वरसूरि की गुरु-शिष्य परंपरा : यह तो स्पष्ट ही है कि जिनेश्वरसूरि के गुरु आचार्य वर्द्धमानसूरि थे। आचार्य जिनेश्वरसूरि का शिष्य समुदाय भी अतिविशाल था। जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, धनेश्वरसूरि, वही पृ. ३४-३५. वही, पृ. ३३-३५. २
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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