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________________ XXXVI : पंचलिंगीप्रकरणम् यह विचार करना चाहिये कि सर्वज्ञ-प्रणीत धर्म के समान हितकारी अन्य कोई भी धर्म नहीं हो सकता है तथा ऐसा सोच कर स्व-धर्म, स्व-सम्यक्त्व के प्रति आस्थावान बने रहना चाहिये। ऐसे विचारवान साधक को कभी भी सांसारिक हित-लाभ के लिये भी अन्य मिथ्यावादियों की ओर देखने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। ३. विचिकित्सा - स्व-धर्म पालन के फल के प्रति सशंकित होना विचिकित्सा है। कर्म-सिद्धान्त के अनुसार भी हमारे किये गए पुण्य व पाप कर्म तुरंत फलदायी नहीं होते हैं। कर्म करने व उसका फल मिलने के बीच एक समयान्तराल होता है जिसे 'अबाधाकाल' कहते हैं। कोई भी कर्म अबाधाकाल के पश्चात ही उदय में आकर फल देता है। अतः यदि हमें अपने पुण्य-कों का फल तुरंत प्राप्त न हो अथवा पुण्य करते हुवे भी दुःखद फल-विपाक प्राप्त हो तो हमें निराश नहीं होना चाहिये अपितु यह सोचना चाहिये कि वर्तमान में हमारे अशुभ कर्मों का उदय चल रहा है और हमारे शुभ-कर्म भी समय आने पर निश्चित रूप से फल देंगे ही। यह निराशा का भाव व इसके परिणाम स्वरूप हमारे मन मे धर्म-फल के प्रति उत्पन्न शंका ही विचिकित्सा है जिससे हमें दूर रहना चाहिये। ४. परपाषंड-प्रशंसा (परदर्शन के प्रति प्रशंसा भाव) - सामान्यतया यह देखा जाता है कि घटिया माल बढिया पेकिंग में आता है। मिथ्यादर्शन भी इसी प्रकार बहुत बढिया ढंग से प्रस्तुत किये जाते हैं तथा भोले-भाले लोग उनकी ओर आकर्षित होकर उनकी प्रशंसा करते हुवे उनके जाल में फंस जाते हैं। एक सम्यग्दृष्टि साधक को इस प्रकार के मायाजाल को समझने में सक्षम होना चाहिये तथा सत्य-पक्ष को नहीं छोड़ना चाहिये। अगर उसका विवेक जागृत है तो उसे कोई भी मिथ्यादर्शन, चाहे वह कितना ही आकर्षक क्यों न हो, प्रशंसनीय नहीं लगेगा तथा उसे सम्यग्दर्शन से नहीं डिगा पाएगा।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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