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________________ १८८ : पंचलिंगीप्रकरणम् ता नियपक्खनिरागारदसणा एइ झत्ति मुत्तो वि। एयमसंगमणिमित्तिमित्थ संसाररूवं जं।। ६६ ।। तत् निजपक्षनिराकारदर्शनेन एति झटिति मुक्तोऽपि । एतदसंगतमनिमित्तिमत्र संसाररूपं यद् ।। ६६ ।। मुक्त ईश्वर भी निज पक्ष के निरादर से संतप्त होकर लौट आता है । निमित्त-कारण नहीं इसमें कोई, फिर वह तो पुनः संसारी हो जाता है।। ६६ ।। ६६. यहाँ प्रतिवादी (वैशेषिकमतावलम्बी) यह कहे कि - मुक्तात्मा (ईश्वर) भी स्वमत का तिरस्कार व निरादर देखकर (व्यथित होकर स्वमत के पुनरुत्थान, पुनरुत्कर्ष, व पुनर्स्थापना के लिये) शीघ्रता से पुनः संसार में लौट कर आता है तो यह बात भी तर्कसंगत नहीं है क्योंकि प्रथमतः तो उसके वापस आने का कोई (अवशिष्ट कर्मजन्य) निमित्त कारण नहीं है तथा द्वितीयतः ऐसा करने से तो वह मुक्तत्मा पुनः संसारी हो जाएगा। भावार्थ : यहाँ शास्त्रकार वैशेषिको के इस मत का निरसन करते हैं कि ईश्वर धर्म (निजमत) की हानि देखकर अधर्म के अभ्युत्थान के लिये अवतरित होकर पुनः संसार में आते हैं। इसके लिये वे अवशिष्ट कर्मजन्य निमित्त के अभाव व मुक्त के संसारित्व रूपी असंगति को बाधक कारण मानते हैं।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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