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________________ १८६ : पंचलिंगीप्रकरणम् वज्झइ पयडी नेव य मुच्चइ य जीवो अइप्पसंगाओ। निस्सेसकम्ममुक्के पुणरागमणं कुओ होइ ? ।। ६५ ।। बध्यते प्रकृतिः नैव च मुच्यते च जीवः अतिप्रसंगात् । निःशेषकर्ममुक्ते पुनरागमनं कुतः भवेत्? ।। ६५।। प्रकृति बंधती और पुरुष होता मुक्त, निःशेषकर्ममुक्त होने पर, इसमें आता है अतिप्रसंगदोष वैसे । पुनरागमन होता है कैसे ? ।। ६५ ।। ६५. (तथा क्षणिकवादी बौद्धों के समान ही वैशेषिकमत भी समीचीन नहीं है क्योंकि इसमें ) प्रकृति का बन्ध और जीव (पुरुष) का मोक्ष होता है, और ऐसा मानने में अतिप्रसंग दोष आता है । तथा समस्त कर्मों से मुक्त होने के पश्चात् ( ईश्वर रूपी जीव का ) पुनरागमन (अवतार) कहॉ से होगा, अर्थात् कैसे हो सकता है ? भावार्थ : वैशेषिक दर्शन में प्रकृति बंधती है और पुरुष मुक्त होता है, यहाॅ अतिप्रसंग दोष है ( क्योंकि अबद्ध की मुक्ति लोकव्यवहार से भी विरुद्ध है) तथा समस्त कर्ममुक्त होने के पश्चात् पुनरागमन होना मानना भी युक्तिसंगत नहीं है ।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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