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________________ आमुख : XXIII तत्त्वार्थों में दृढ़ श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है।" यहाँ हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि सम्यग्दर्शन का दूसरा अर्थ मनुष्य की विचारशक्ति के विरुद्ध जाता है। उस विचारशक्ति के विरुद्ध जो संज्ञी मनुष्य को असंज्ञी जीवों से अलग पहचान देती है। लेकिन यह कोई ऐसी दुविधा नहीं है जिसका कोई हल न हो। जब तक मनुष्य बहिर्दृष्टि होता है तभी तक उसका विश्वास के साथ विरोध रहता है, ज्यों ही वह अंतर्दृष्टि होकर अपने भीतर झांकने लगता है उसमें श्रद्धा का प्रादुर्भाव होता है तथा वह सब शंकाओं के पार चला जाता है। उसका दर्शन न केवल श्रद्धा का संबल बन जाता है अपितु वह स्वयं मूर्तिमान् श्रद्धा बन जाता है। सम्यग्दर्शन का महत्व - - सम्यग्दर्शन के लाभों का पूर्ण साक्षात्कार करने के लिये हमें मिथ्या-दर्शन की भयावहता व उससे होने वाली हानियों का जायजा लेना होगा। यह कहा जाता है कि आत्मा के लिये मिथ्यात्व सबसे भयानक रोग है, सबसे गहन अंधकार है, सबसे दुर्दान्त शत्रु है तथा सबसे ज्यादा प्राण-नाशक विष है। मिथ्यात्व सबसे भयानक रोग इसलिये माना गया है कि जहाँ शारीरिक रोग केवल शरीर को रुग्ण करते हैं, मानसिक रोग केवल मन को विकृत करते है, मिथ्यादृष्टि तो आत्मा को ही विकृत कर देती है। यह अंधतम अंधकार कहा गया है क्योंकि जहाँ गहन से गहन अंधकार को हम मात्र एक दीपक जलाकर दूर कर सकते हैं मिथ्यात्व के अंधकार में डूबी हुई आत्मा तो भरी दुपहरी में भी सत्य का दर्शन नहीं कर सकती है। यह सब से शक्तिशाली शत्रु है क्योंकि अन्य शत्रु तो हमारे सांसारिक हितों को ही नुकसान पहुंचाते हैं लेकिन मिथ्यात्व तो आत्मा को अनंत संसार-सागर में भटकाने वाला है। तथा यह सबसे मारक विष है क्योंकि यह शरीर को नहीं वरन् आत्मा को मारता है। ' तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।। - तत्त्वार्थसूत्र, १.२
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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