SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२४ : पंचलिंगीप्रकरणम् जिणवयणं साहंती साहू जं ते वि साहणसमत्था। वायरणछंदनाडयकव्वालंकारनिम्माया . ।। ६३ ।। जिनवचनम् साधयन्ति साधवः यत् तेऽपि साधनसमर्थाः। व्याकरण-छन्द-नाटक-काव्यालंकार-निर्मातारः ।। ६३ ।। क्योंकि बहुश्रुत साधनसमर्थ मुनिजन जिनवचन का करते उपदेश । वे करते हैं स्व रचनाओं में व्याकारण, छंद, नाटक, काव्य और अलंकार का सुंदर समावेश ।। ६३ ।। ६३. क्योंकि बहुश्रुत मुनिजन भव्यों को जिनवचन या भगवन्मत का उपदेश देनेवाले होते हैं, वे साधनसमर्थ साधु (जो जिनमत उपदेशनप्रतिष्ठ तथा परमत निरसन प्रतिस्थापना-प्रतिष्ठ होते हैं अर्थात् वे प्रतिवादी कुतीर्थिकों के मत का निरास करके जिनमत की प्रतिष्ठा करने में समर्थ होते हैं) वे व्याकरण, छंद, नाटक, काव्य, अलंकार आदि के ज्ञाता होते हैं। अतः सभी प्रकार से जिनमत का उपदेश देने में कुशल होते हैं। भावार्थ : इस गाथा में जिनमत का उपदेश करने वाले मुनियों के लिये भी व्याकरण, छंद, नाटक, काव्य, व अलंकार आदि विधाओं में कुशल होने की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy