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________________ ११८ : पंचलिंगीप्रकरणम् रोगि सिरावेहो इव सुविज्जकिरिया व सुपउत्ता उ। परिणामसुंदर च्चिय चिच्चा से वाहयोगेवि ।। ६०।। रोगिणो शिरावेध इव सुवैद्यक्रियेव सुप्रयुक्ता तु। परिणामान्दरा चैव चेष्टा विधिना तस्य बाधयोगेऽपि।। ६० ।। सुप्रयुक्त शिरावेधादि सुवैद्य-क्रिया, रोगी को ज्यों होती हितकर । वैसे ही बाधायुक्त भी जिन-भवन निर्माण, होता है परिणाम-सुन्दर ।। ६०।। ६०. रोगी के उपचार हेतु सुवैद्य द्वारा (उपकार बुद्धि से की गई) शिरावेध (तथा शल्यक्रिया, कटुक औषध प्रयोग, आदि) क्रियाएँ अति कष्टकर होते हुए भी उनके द्वारा रोग शान्त हो जाने से परिणाम में सुन्दर होती हैं। वैसे ही जिनालय निर्माण में पृथ्वीकायिकादि जीवों का बाथ् (नाश) तो होता है फिर भी जिनबिम्ब के दर्शन से किसी को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है तो कोई विरति को ग्रहण करता है तो कोई साक्षात् मोक्ष को सुख प्राप्त करता है। इसलिये वह भी परिणामसुन्दर है। भावार्थ : यहाँ शास्त्रकार जिनालय निर्माण में होने वाले सावद्यकर्म की तुलना योग्य चिकित्सक द्वारा प्रयुक्त शिरावेधादि प्रत्यक्षतः कष्टकर क्रियाओं से करके यह सिद्ध करते हैं कि मंदिर निर्माण आपाततः बाधक होते हुए भी परिणामतः सुन्दर है।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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